जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते

 इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक निर्णय में कहा है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (डी) के अनुसार, जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते, इसके बजाय इसे शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए। न्यायमूर्ति सैयद आफताफ हुसैन रिजवी ने विमल दुबे और एक अन्य द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482  के अंतर्गत दायर याचिका को स्वीकार कर ये निर्णय दिया। आवेदकों के अधिवक्ता ने मुख्य रूप से तर्क दिया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 323 और 504 के अंतर्गत एक एनसीआर पंजीकृत किया गया था और उसके बाद जांच की गई और आवेदकों के विरुद्ध आरोप पत्र प्रस्तुत किया गया।  यह तर्क दिया गया कि मजिस्ट्रेट ने पुलिस रिपोर्ट को देखे बिना और कानून के प्रावधानों के खिलाफ अपराध का संज्ञान लिया, क्योंकि धारा 2 (डी) सीआरपीसी के अनुसार, यदि जांच के बाद पुलिस रिपोर्ट में असंज्ञेय अपराध का खुलासा होता है, तो यह शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए और जांच अधिकारी/पुलिस अधिकारी को शिकायतकर्ता माना जाएगा और शिकायत मामले की प्रक्रिया का पालन किया जाना है। धारा 2(डी) सीआरपीसी के प्रावध

मुस्लिम पत्नी को तलाक का अधिकार /Right to Divorce of Muslim Wife :-

मुस्लिम पत्नी को भी निम्न प्रकार तलाक देने का अधिकार है -

(1)तलाक -ए-तफवीज /प्रत्यायोजित तलाक /Delegated Talaq :-
        मुस्लिम पति अपने तलाक देने के अधिकार को किसी व्यक्ति को प्रत्यायोजित कर सकता है। ऐसा व्यक्ति स्वयं पत्नी भी हो सकती है। जब पत्नी इस अधिकार के अधीन तलाक देती है तो इसे प्रत्यायोजित तलाक कहते हैं।

(2) सहमति से तलाक /Talaq by mutual consent :-
           इसके अन्तर्गत निम्न तलाक आते हैं -

(क)  खुला :- जब पत्नी तलाक का प्रस्ताव करती है और पति सहमति प्रदान करता है और पत्नी सहमति के लिए कुछ प्रतिफल भी प्रदान करती है तो इसे खुला कहते हैं। इसकी निम्न अपेक्षाएं हैं -

(1) पति और पत्नी व्यस्क एवं स्वस्थ चित हों।
(2) पत्नी द्वारा विवाह विच्छेद का प्रस्ताव किया गया हो और पति द्वारा स्वीकार किया गया हो।
(3) पत्नी द्वारा विवाह विच्छेद की सम्मति के लिए पति को कुछ धन दिया गया हो।
(4) पति और पत्नी दोनों द्वारा सहमति प्रदान की गई हो।

(ख) मुबारत :-   मुबारत में पत्नी या पति दोनों मे से कोई भी तलाक का प्रस्ताव कर सकता है और दूसरा पक्ष उसे स्वीकार कर सकता है। और इसमें कोई  प्रतिफल भी नहीं दिया जाता है।

(3) न्यायालय द्वारा तलाक / Divorce by Court :-

    मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम ,1939 की धारा 2 के अनुसार मुस्लिम पत्नी को 9 दशाऔं में न्यायालय तलाक की डिक्री प्रदान कर सकता है -

(1) पति के चार वर्ष या अधिक समय तक लापता रहने पर।
(2)पति द्वारा पत्नी का दो वर्ष या अधिक समय तक भरण पोषण करने में उपेक्षा करने पर।
(3) जब पति को सात वर्ष या अधिक समय की सजा हो गई है और वह अन्तिम हो गई है।
(4) जब पति बिना युक्तिसंगत कारण के तीन वर्ष या अधिक समय तक वैवाहिक दायित्वों के पालन करने में असफल रहता है।
(5) यदि पति विवाह के समय से ही नपुंसक रहा है और तलाक के आवेदन तक नपुंसक बना रहता है।
(6) यदि पति दो वर्ष तक लगातार पागल रहा हो या कुष्ठ रोग से पीडित रहा हो या उग्र रतिज रोग से पीडित रहा हो।
(7) पत्नी द्वारा 'योवनागम के विकल्प ' के अधिकार का प्रयोग करने पर:-

जब किसी स्त्री का विवाह पिता अथवा पितामह के अतिरिक्त किसी अन्य संरक्षक के द्वारा कराया गया हो और विवाह के समय पत्नी की आयु 15 वर्ष से कम रही हो तो पत्नी को 15 वर्ष की आयु पूरी करने पर और 18 वर्ष के पूर्व यह अधिकार होता है कि वह चाहे तो विवाह का अनुमोदन करे चाहे ना करे बशर्ते पत्नी की इच्छा पर सम्भोग न हुआ हो तो इसे योवनागमन का विकल्प कहते हैं।
(8) पति द्वारा क्रूरता करने पर।
(9) अन्य आधार -जैसे व्यभिचार का मिथ्या आरोप लगाना आदि।

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