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Showing posts from March 11, 2018

जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते

 इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक निर्णय में कहा है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (डी) के अनुसार, जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते, इसके बजाय इसे शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए। न्यायमूर्ति सैयद आफताफ हुसैन रिजवी ने विमल दुबे और एक अन्य द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482  के अंतर्गत दायर याचिका को स्वीकार कर ये निर्णय दिया। आवेदकों के अधिवक्ता ने मुख्य रूप से तर्क दिया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 323 और 504 के अंतर्गत एक एनसीआर पंजीकृत किया गया था और उसके बाद जांच की गई और आवेदकों के विरुद्ध आरोप पत्र प्रस्तुत किया गया।  यह तर्क दिया गया कि मजिस्ट्रेट ने पुलिस रिपोर्ट को देखे बिना और कानून के प्रावधानों के खिलाफ अपराध का संज्ञान लिया, क्योंकि धारा 2 (डी) सीआरपीसी के अनुसार, यदि जांच के बाद पुलिस रिपोर्ट में असंज्ञेय अपराध का खुलासा होता है, तो यह शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए और जांच अधिकारी/पुलिस अधिकारी को शिकायतकर्ता माना जाएगा और शिकायत मामले की प्रक्रिया का पालन किया जाना है। धारा 2(डी) सीआरपीसी के प्रावध

पारस्परिक सहमति से विवाह विच्छेद / Divorce By Mutual Consent

     हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 13 ख आपसी सहमति से विवाह विच्छेद का उपबन्ध करती है। इसके अन्तर्गत विवाह के दोनों पक्षकार मिलकर जिला न्यायाधीश के न्यायालय में विवाह विच्छेद की डिक्री द्वारा विवाह के विघटन के लिए इस आधार पर याचिका प्रस्तुत कर सकते हैं कि --- (1) पक्षकार एक वर्ष या उससे अधिक समय से अलग रह रहे हैं और वे एक साथ नहीं रह सके हैं, एवं (2) वे इस बात के लिए परस्पर सहमत हो गए हैं कि विवाह का विघटन कर दिया जाना चाहिए। तो न्यायालय विवाह विच्छेद की डिक्री पारित कर देगा और विवाह डिक्री की तारीख से विघटित हो जाएगा, यदि ---   (क) यचिका प्रस्तुत किये जाने के छः माह बाद एवं 18 माह पूर्व दोनों पक्षकारों द्वारा किये गये प्रस्ताव पर, यदि इस बीच याचिका वापस न ली गई है,और (ख)  न्यायालय को पक्षकारों को सुनने के बाद और जाँच करने के बाद यह समाधान हो गया हो गया हो कि याचिका में वर्णित कथन सही है। उच्चतम न्यायालय ने अपने हाल के निर्णयों में छह माह की आवश्यक शर्त को भी लागू करने से इनकार कर दिया है। और कहा है कि यदि मामला इस तरह का  है कि छह माह की शर्त से अनावश्यक देरी होगी तो वह आवश्यक नही

न्यायिक पृथक्करण /Judicial Separation

     वैसे तो पति और पत्नी दोनों का ही यह पवित्र कर्तव्य है कि वह एक दूसरे को साहचर्य प्रदान करे। परन्तु कभी कभी ऐसी परिस्थितियाँ पैदा हो जाती हैं जब पति पत्नी का एक साथ रहना सम्भव नहीं रह जाता। हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 10 ऐसी परिस्थिति में न्यायिक पृथक्करण का उपबन्ध करती है। जिसके अनुसार निम्नलिखित आधारों में से किसी आधार पर पति पत्नी कोई भी न्यायिक पृथक्करण की याचिका न्यायालय में प्रस्तुत कर सकते हैं -------- (1) जारता -- जब किसी पक्षकार ने पति अथवा पत्नी के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति से लैंगिक संभोग किया हो। (2) क्रूरता -- जब याची के साथ दूसरे पक्षकार ने क्रूरता का व्यवहार किया हो। (3) अभित्यजन -- जब दूसरे पक्षकार ने याचिका किये जाने के ठीक पहले कम से कम दो वर्ष से लगातार अभित्यजन किया हो। (4) धर्म परिवर्तन -- जब दूसरा पक्षकार धर्म परिवर्तन के कारण हिन्दू न रह गया हो । (5) विकृतचित्ता -- जब दूसरा पक्षकार विकृतचित्त रहा हो जिस कारण आवेदक प्रत्यर्थी के साथ युक्तियुक्त रूप से नहीं रह सकता। (6) कोढ़ -- जब याचिका प्रस्तुत किये जाने के ठीक एक वर्ष पूर्व से दूसरा पक्षकार उग्र और अ

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