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Showing posts from December, 2021

जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते

 इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक निर्णय में कहा है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (डी) के अनुसार, जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते, इसके बजाय इसे शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए। न्यायमूर्ति सैयद आफताफ हुसैन रिजवी ने विमल दुबे और एक अन्य द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482  के अंतर्गत दायर याचिका को स्वीकार कर ये निर्णय दिया। आवेदकों के अधिवक्ता ने मुख्य रूप से तर्क दिया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 323 और 504 के अंतर्गत एक एनसीआर पंजीकृत किया गया था और उसके बाद जांच की गई और आवेदकों के विरुद्ध आरोप पत्र प्रस्तुत किया गया।  यह तर्क दिया गया कि मजिस्ट्रेट ने पुलिस रिपोर्ट को देखे बिना और कानून के प्रावधानों के खिलाफ अपराध का संज्ञान लिया, क्योंकि धारा 2 (डी) सीआरपीसी के अनुसार, यदि जांच के बाद पुलिस रिपोर्ट में असंज्ञेय अपराध का खुलासा होता है, तो यह शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए और जांच अधिकारी/पुलिस अधिकारी को शिकायतकर्ता माना जाएगा और शिकायत मामले की प्रक्रिया का पालन किया जाना है। धारा 2(डी) सीआरपीसी के प्रावध

राशन डीलर की अनियमितताओं की जांच के लिए शिकायत कैसे करे।

 राशन डीलर राशन वितरण में इसलिए अनियमितता कर पाता है क्योंकि अधिकतर लोग यह नही जानते कि डीलर की शिकायत कहां  और कैसे करें ? लेकिन यदि राशन कार्ड धारक  जागरूक नहीं होगा, तो राशन डीलर राशन वितरण में गड़बड़ी करते रहेंगे। इसलिए हमको यह जानना बहुत आवश्यक है कि राशन डीलर की शिकायत कैसे और कहां करें ? चलिए  इसके बारे में  पूरी जानकारी  बताते है। राशन डीलर की शिकायत कैसे करें ? राशन डीलर की शिकायत करने के लिए सभी राज्यों के खाद्य विभाग ने  हेल्पलाइन नंबर जारी किया है। आप उस शिकायत नंबर पर फोन करके  राशन डीलर की शिकायत कर सकते है। नीचे तालिका में  राज्य का नाम एवं राशन डीलर का शिकायत नंबर दिया गया है राज्य का नाम-- शिकायत नंबर आंध्रप्रदेश -१८००-४२५-२९७७ अरुणाचल प्रदेश -०३६०२२४४२९० असम -1800-345-3611 बिहार 1800-3456-194 छ्त्तीसगढ़ 1800-233-3663 गोवा -      1800-233-0022 गुजरात 1800-233-5500 हरियाणा 1800-180-2087 हिमाचल प्रदेश 1800-180-8026 झारखंड 1800-345-6598, १८००-212-5512 कर्नाटक   १८००-425-1550 मध्यप्रदेश   181 महाराष्ट्र 1800-22-4950 मणिपुर 1800-345-3821 मेघालय

क्या बीमा कंपनी बीमाधारक द्वारा बताई वर्तमान चिकित्सा स्थिति का हवाला देकर दावा को खारिज कर सकती है।

 उच्चतम न्यायालय ने बीमा धारकों के पक्ष में एक बड़ा फैसला किया है। अब बीमा कंपनी बीमाधारक द्वारा बताई वर्तमान चिकित्सा स्थिति का हवाला देकर दावा को खारिज नहीं कर सकती। जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की बैंच ने कहा कि प्रस्तावक का कर्तव्य है कि वह बीमाकर्ता को दी जाने वाली जानकारी में सभी महत्वपू्र्ण तथ्यों का उल्लेख करें। यह माना जाता है कि प्रस्तावक बीमा से जुड़ी सभी जानकारी को जानता है। बैंच ने कहा, 'हालांकि वह जो जानकारी देता है, वह उसके वास्तविक ज्ञान तक सीमित नहीं है।' यह उन भौतिक तथ्यों तक है, जो कार्य की सामान्य प्रक्रिया में उसे जानना चाहिए। न्यायालय ने आगे कहा कि एक बार बीमाधारक की मेडिकल स्थिति का आकलन करने के बाद पॉलिसी जारी हो जाए, तो बीमाकर्ता उस मौजूदा चिकिस्ता स्थिति का हवाला देकर दावा खारिज नहीं कर सकता जिसे बीमाधारक ने प्रस्ताव फॉर्म में बताया था।  सर्वोच्च न्यायालय मनमोहन नंदा द्वारा राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग के आदेश के विरुद्ध संस्थित अपील पर सुनवाई कर रहा था। दरअसल यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस कंपनी ने यूएस में इलाज के खर्चे का नंदा का दावा खारिज कर दिया था

क्या किराएदार किसी भवन का स्वामी बन सकता है और किरायानामा 11 महीने ही क्यों बनाया जाता है

 किराया अनुबंध और किरायानामा के लिए क्या क्या कार्य आवश्यक होते हैं यह जानकारी प्राप्त करना बहुत जरूरी होता है ताकि भविष्य में किसी परेशानी का सामना न करना पड़े। तो आओ जानते हैं उन सभी आवश्यक बातों को। जो कि निम्न प्रकार हैं-  अनुबंध और किराए की रसीद आवश्यक है किराएदारी के मामलों  में अक्सर यह देखा गया है कि किराया एग्रीमेंट और किराए की रसीद के सम्बन्ध में मकान स्वामी और किराएदार सतर्क नहीं होते हैं। भवन स्वामी भी अपना किरायानामा बनवाने में चूक करते है और किराएदार भी इस पर बल नहीं देते हैं जबकि यह बहुत घातक हो सकता है। किसी भी संपत्ति को किराए पर देने  पूर्व उसका किरायानामा निष्पादित किया जाना चाहिए और हर महीने के किराए की वसूली की  भवन स्वामी द्वारा किराएदार को किराया प्राप्ति की रसीद देना चाहिए । ऐसा करने से  सबूत भविष्य के लिए उपलब्ध रहते हैं। और इससे  भविष्य में यह साबित किया जा सकता है कि जो व्यक्ति भवन पर अपना कब्जा बना कर बैठा है वह भवन पर एक किराएदार की हैसियत से है। यदि ऐसा कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं हो तो भवन पर कब्जा रखने वाला व्यक्ति यह भी क्लेम कर सकता है कि वह भवन स्वामी की
 क्या  मुस्लिम लड़की 18 वर्ष से कम आयु में अपनी मर्ज़ी से शादी कर सकती है पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने पुलिस को एक 17 वर्षीय मुस्लिम लड़की की सुरक्षा देने का आदेश दिया है, जिसने अपने परिवार और रिश्तेदारों की इच्छा के विरुद्ध एक हिंदू लड़के से शादी की थी। अपने आदेश में न्यायालय ने कहा कि क्योंकि वह एक मुस्लिम लड़की है वह युवावस्था में पहुंचने के बाद किसी से भी शादी करने के लिए स्वतंत्र थी, जिसका अर्थ है कि देश के कानून द्वारा निर्धारित न्यूनतम शादी की उम्र मुसलमानों पर लागू नहीं होती है। न्यायालय ने कहा कि परिवार को हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है। न्यायमूर्ति हरनरेश सिंह गिल ने कहा, “कानून स्पष्ट है कि मुस्लिम लड़की की शादी मुस्लिम पर्सनल लॉ द्वारा शासित होती है।” सर दिनशाह फरदुनजी मुल्ला द्वारा ‘मोहम्मडन कानून के सिद्धांत’ पुस्तक के अनुच्छेद 195 के अनुसार , मुस्लिम लड़की याची संख्या 1, 17 वर्ष की आयु में, अपनी पसंद के व्यक्ति के साथ विवाह अनुबंध में प्रवेश करने के लिए सक्षम है। उसके साथी की उम्र 33 साल के आसपास बताई जा रही है। नतीजतन, याचिकाकर्ता नंबर 1 मुस्लिम पर्सनल लॉ के

मानसिक बीमारी के आधार पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने पति को तलाक की डिक्री प्रदान की

दिल्ली उच्च न्यायालय ने १६ वर्ष पुराने एक विवाह को विच्छेदित करते हुए निर्णय दिया कि मानसिक रूप से अस्वस्थ जीवनसाथी के साथ रहना आसान नहीं है, क्योंकि इसमें पत्नी ने यह तथ्य छुपाया था कि वह सिजोफ्रेनिया से पीड़ित थी। जस्टिस विपिन सांघी और जसमीत सिंह की पीठ ने पति द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि विवाह केवल सुखद यादों और अच्छे समय से नहीं बनता है, विवाह में दो व्यक्तियों को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता हैं और एक साथ परेशानियों का सामना करना पड़ता है। ऐसे साथी के साथ रहना आसान नहीं है, जो मानसिक रूप से अस्वास्थ्य  हो, इस तरह की समस्याओं का सामना करने वाले व्यक्ति के लिए अपनी अलग चुनौतियां होती हैं, और इससे भी अधिक उसके जीवनसाथी के लिए। विवाह में समस्याओं और भागीदारों के बीच संचार की समझ होनी चाहिए, विशेषकर जब विवाह में दो पक्षों में से एक ऐसी चुनौतियों का सामना कर रहा हो।   न्यायालय ने पत्नी द्वारा विवाह से पूर्व अपनी मानसिक बीमारी का खुलासा नहीं करने पर कहा कि यह याची के साथ एक धोखाधड़ी थी। कोर्ट ने पाया कि पत्नी ने कभी भी पति को अपनी मानसिक बीमारी के बारे में नहीं बताया

क्या दहेज उत्पीड़न के मामले मे पति के परिवार के सदस्यों को आरोपी बनाया जा सकता है।

 दहेज उत्पीड़न के एक मामले में उच्चतम न्यायालय ने एक महिला और एक पुरुष के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही रद्द कर दी है। शीर्ष अदालत ने कहा कि वैवाहिक विवादों में बार-बार पति के परिवार के सदस्यों को प्रथम सूचना रिपोर्ट में यूं ही घसीटकर आरोपित बनाया जा रहा है।जोकि गलत है।     जस्टिस आर. सुभाष रेड्डी और जस्टिस हृषिकेश राय की पीठ ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस आदेश को खारिज कर दिया जिसमें दहेज हत्या के मामले में आरोपित मृतका के देवर और सास को समर्पण करने और जमानत के लिए आवेदन करने का निर्देश दिया गया था।    शीर्ष न्यायालय ने कहा कि बड़ी संख्या में परिवार के सदस्यों को प्राथिमिकी में यूं ही नामों का उल्लेख करके प्रदर्शित किया गया है, जबकि विषय-वस्तु अपराध में उनकी सक्रिय भागीदारी को उजागर नहीं करती, इसलिए उनके खिलाफ मामले का संज्ञान लेना उचित नहीं था। यह भी कहा गया है कि इस तरह के मामलों में संज्ञान लेने से न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग होता है। शीर्ष न्यायालय ने कहा कि मृतका के पिता द्वारा दर्ज कराई गई शिकायत का अवलोकन करने से आरोपित की संलिप्तता को उजागर करने वाले किसी विशेष आरोप का संकेत नहीं

किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी कब आवश्यक है

   इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने रूटीन गिरफ्तारी को लेकर अहम निर्देश दिया है। हाईकोर्ट ने कहा है कि विवेचना के लिए पुलिस कस्टडी में पूछताछ के लिए जरूरी होने पर ही गिरफ्तारी की जाए। कोर्ट ने कहा है कि गिरफ्तारी अंतिम विकल्प होना चाहिए. गैरजरूरी गिरफ्तारी मानवाधिकार का हनन है। जोगिंदर सिंह केस में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय पुलिस आयोग की रिपोर्ट के हवाले से कहा है कि रूटीन गिरफ्तारी पुलिस में भ्रष्टाचार का स्रोत है। रिपोर्ट कहती है 60 फीसदी गिरफ्तारी गैरजरूरी और अनुचित होती है। जिस पर43.2 फीसदी जेल संसाधनों का खर्च हो जाता है।    उच्च न्यायालय ने कहा कि वैयक्तिक स्वतंत्रता बहुत ही महत्वपूर्ण मूल अधिकार है। बहुत जरूरी होने पर ही इसमें कटौती की जा सकती है। गिरफ्तारी से व्यक्ति के सम्मान को ठेस पहुंचती है। इसलिए अनावश्यक गिरफ्तारी से बचना चाहिए। कोर्ट ने दहेज उत्पीड़न, मारपीट गाली-गलौज करने के आरोपी राहुल गांधी की अग्रिम जमानत मंजूर कर ली है। कोर्ट ने कहा है कि गिरफ्तारी के समय 50 हजार के मुचलके व दो प्रतिभूति लेकर जमानत पर रिहा कर दिया जाए। यह आदेश जस्टिस अजीत सिंह के एकल पीठ ने गौतमबुद्धनगर क

भारतीय दण्ड संहिता की धारा 397 के अंतर्गत अपराध के आवश्यक तत्व क्या है

शिकायतकर्ता की शिकायत दर्ज करने और जांच पूरी होने पर, पुलिस ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 392/397 और मध्य प्रदेश डकैती और व्यापार प्रभाव क्षेत्र अधिनियम १९८१  की धारा 11/13 के अंतर्गत आरोप पत्र दाखिल किया।           26 फरवरी, 2013 को विचारण न्यायालय ने अपीलकर्ता और छोटू के खिलाफ आईपीसी की धारा 392/397 और एमपीडीवीपीके अधिनियम, 1981 की धारा 11/13 के अंतर्गत आरोप तय किए। सबूतों का विश्लेषण करने पर, विचारण न्यायालय ने कहा कि अपीलकर्ता और उसके सह-आरोपी घटना में लिप्त थे और आरोप को साबित किया गया है। तदनुसार सजा और दोषसिद्धि करार दे दी।      विचारण न्यायालय के फैसले का विरोध करते हुए, अपीलकर्ता और सह-आरोपी ने उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, जिसमें उन्होंने तर्क दिया कि उनके खिलाफ मामले में झूठा आरोप लगाया गया था और आईपीसी की धारा ३९७ के अंतर्गत आरोप कायम नहीं रखा जा सकता है। उन्होंने आगे तर्क दिया कि आग्नेयास्त्र भले ही साबित हो गया हो, लेकिन इसका प्रयोग नहीं किया गया था और इस तरह धारा 397 आईपीसी के अंतर्गत आरोप तय नहीं होगा। सबूतों की विस्तार से समीक्षा करने के बाद, उच्च न्यायालय ने विचारण

क्या पुलिस सात वर्ष तक सजा के मामले मे मुकदमा दर्ज होते ही गिरफ्तार कर सकती है। can police arrest on registration of case in seven years imprisonment cases

लाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक मामले में यह निर्णय दिया है कि जब तक पुलिस जांच अधिकारी इस बात से संतुष्ट नहीं होते कि किसी मामले के आरोपी की गिरफ्तारी आवश्यक है, तब तक उसकी गिरफ्तारी न की जाए।          न्यायालय ने कहा कि पुलिस मुकदमा दर्ज होते ही आरोपी की सामान्य तरीके से गिरफ्तारी न करे। किसी भी व्यक्ति की गिरफ्तारी तभी की जाए, जब मामला सीआरपीसी की धारा 41ए के मानकों पर खरा उतरता हो।     न्यायालय ने कहा कि पुलिस अधिकारी गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के सामने पेश करने से पूर्व उसकी गिरफ्तारी को लेकर एक चेक लिस्ट तैयार करें और उसमें गिरफ्तारी के कारण का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया जाए। पुलिस अधिकारी को यह स्पष्ट रूप से कथन करना होगा कि मामले में अभियुक्त की गिरफ्तारी क्यों आवश्यक है। साथ ही मजिस्ट्रेट पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट का अवलोकन करें और उस पर अपनी सन्तुष्ट होने के बाद ही गिरफ्तारी के आदेश को आगे बढ़ाएं।      यह आदेश न्यायमूर्ति डॉ के जे ठाकर एवं न्यायमूर्ति गौतम चौधरी की खंडपीठ ने  विमल कुमार एवं तीन अन्य की याचिका पर सुनवाई करते हुए दिया है। न्यायालय ने यह आदेश सात साल से कम

दहेज मृत्यु के अपराध को गठित करने के आवश्यक तत्व क्या है। what are necessary ingredients of dowry death offence

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक फैसला सुनाया है कि एक बार अभियोजन यह साबित करने में सक्षम हो जाता है कि एक महिला को उसकी मृत्यु से कुछ समय पूर्व दहेज के लिए प्रताड़ित किया गया था, तो न्यायालय इस अनुमान के साथ आगे बढ़ेगा कि दहेज के लिए महिला को प्रताड़ित  करने वाले लोगों ने धारा 304बी के अंतर्गत दहेज मृत्यु का अपराध किया है। मुख्य न्यायाधीश रमना, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति हेमा कोहली की पीठ ने आरोपी मृतक की सास और पति द्वारा संस्थित अपील की सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की, जिन्होंने झारखंड उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती दी थी। इस मामले में मृतका के ससुराल पक्ष और पति ने कथित तौर पर दहेज के लिए मृतका को प्रताड़ित किया और उसके लापता होने के बाद पास की एक नदी से एक कंकाल मिला और आरोपियों पर दहेज हत्या का भी आरोप लगाया गया। उच्च न्यायालय ने निचली अदालत द्वारा 1999 में पारित दोषसिद्धि के आदेश की पुष्टि की थी, जो कि अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, गिरिडीह, द्वारा पारित आईपीसी की धारा 304 बी, २०1, डीपी एक्ट की धारा 3/4 के अंतर्गत पारित किया गया था। इससे क्षुब्ध होकर आरोपी ने सर्वोच्च न्यायाल

क्या लिव-इन रिलेशनशिप में रहने के लिए विवाह योग्य उम्र होना आवश्यक है।

   लिव-इन रिलेशनशिप में एक युवा जोड़े की सुरक्षा की माँग करने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने मंगलवार को फैसला दिया है कि यह तथ्य कि वयस्क लड़का विवाह योग्य उम्र का नहीं है, युवा जोड़े को अनुच्छेद 21 के तहत उनके मौलिक अधिकार से वंचित नहीं करता है।    न्यायमूर्ति हरनरेश सिंह गिल संविधान के अनुच्छेद 226 के अंतर्गत दायर एक रिट याचिका पर सुनवाई कर रहे थे जिसमें याचिकाकर्ताओं ने अपने माता-पिता से पुलिस सुरक्षा की मांग की, जिन्होंने उनके लिव-इन रिलेशनशिप पर आपत्ति जताई थी।   याचिकाकर्ता नंबर २ लड़का बालिग होने के बावजूद अभी विवाह योग्य उम्र तक नहीं पहुंचा था, जिस कारण दंपति के माता-पिता ने उन्हें धमकी दी थी।     उच्च न्यायालय ने वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, गुरदासपुर को निर्देश दिया कि यदि जीवन या स्वतंत्रता के लिए कोई खतरा महसूस होता है तो दंपति को सुरक्षा प्रदान करें।             याचिकाकर्ताओं के अधिवक्ता ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता लगातार खतरे में हैं क्योंकि उन्हें डर है कि उनके माता-पिता उनकी धमकियों को अंजाम दे सकते हैं और यहां तक ​​कि उनकी हत्या भी कर सकते ह

जाली जाति प्रमाण पत्र के आधार पर प्राप्त नियुक्ति को रद्द करना उचित है

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी द्वारा एक महिला सरकारी शिक्षक की सेवा समाप्त करने के आदेश को बरकरार रखा, जिसने अपनी नियुक्ति के लिए जाली जाति प्रमाण पत्र  जमा किया था। यह देखते हुए कि अपने आवेदन में, एक महिला सरकारी शिक्षक ने अपनी जाति को 'अंसारी' बताया था, लेकिन उसने नियुक्ति हासिल करते समय अनुसूचित जाति वर्ग से संबंधित जाति प्रमाण पत्र जमा कर दिया था, न्यायमूर्ति दिनेश कुमार सिंह की खंडपीठ ने उसके बर्खास्तगी आदेश को बरकरार रखा।  क्या था पूरा मामला            याचिकाकर्ता  को नवंबर 1999 में जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी, हरदोई द्वारा इस शर्त के साथ नियुक्ति दी गई थी कि भविष्य में यदि याचिकाकर्ता द्वारा दी गई कोई जानकारी या उसके द्वारा प्रस्तुत कोई भी दस्तावेज गलत या जाली पाया जाएगा, तो उसकी सेवाएं तत्काल समाप्त किये जाने योग्य होगी। याचिकाकर्ता ने अनुसूचित जाति वर्ग से संबंधित अपना जाति प्रमाण पत्र प्रस्तुत किया था। तत्पश्चात, हरदोई के जिला मजिस्ट्रेट के समक्ष एक शिकायत की हुईं जिसमें कथन था कि याचिकाकर्ता एक मुसलमान है और उसकी सेवा पुस्तिका में, उसके धर्म का उल

वकीलों के विरुद्ध शिकायत के निस्तारण के बारे में उच्चतम न्यायालय ने क्या कहा।

दिनांक 17/12/2021 को, उच्चतम न्यायालय ने सभी राज्य बार परिषदों को निर्देश दिया कि वे अधिवक्ताओं के विरुद्ध शिकायतों का निपटारा धारा ३५ अधिवक्ता अधिनियम के अंतर्गत एक वर्ष के अन्दर तेजी से करें, जैसा कि अधिवक्ता अधिनियम की धारा 36 बी में वर्णित है।                 न्यायालय ने यह भी कहा कि भारतीय विधिज्ञ परिषद के समक्ष कार्यवाहियों का भी तेजी से निपटारा किया जाना चाहिए।      न्यायमूर्ति एमआर शाह और न्यायमूर्ति बीवी नगरत्ना की खंडपीठ के अनुसार केवल असाधारण मामलों में ही वैध कारण के आधार पर कार्यवाही बार काउन्सिल ऑफ इंडिया को हस्तांतरित की जा सकती है।                   उच्चतम न्यायालय ने कहा कि पिछले 5 वर्षों में 1273 शिकायतें बीसीआई को हस्तांतरित की गई हैं, इसलिए ऐसी शिकायतों के निपटान के लिए एक तंत्र विकसित किया जाना चाहिए। उपर्युक्त निर्देशों/टिप्पणियों के अलावा, बेंच ने निम्नलिखित निर्देश भी जारी किए:-     बार काउन्सिल ऑफ इंडिया को शिकायतों को देखने के लिए सेवानिवृत्त न्यायिक अधिकारियों और अनुभवी अधिवक्ताओं को जांच अधिकारियों के रूप में सूचीबद्ध करने पर विचार करना चाहिए।      जांच अधिक

अभियुक्त की आयु का निर्धारण करने के लिए क्या हाई स्कूल प्रमाण-पत्र मान्य सबूत है।is the certificate of high school sufficient evidence to decide the age of juvenile.

     इलाहाबाद उच्च न्यायालय  ने कहा कि आरोपी की आयु  का निर्धारण किशोर न्याय कानून  के अंतर्गत ही किया जाएगा। किशोर न्याय कानून के तहत हाई स्कूल प्रमाण-पत्र आयु निर्धारण के लिए मान्य सबूत है। ऐसे में जब हाई स्कूल प्रमाणपत्र मौजूद हो तो अन्य साक्ष्य  की आवश्यकता नहीं है।       आयु निर्धारण को लेकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने दिनांक 16/12/2021 को एक महत्वपूर्ण फैसला किया। न्यायालय ने कहा अपराध के आरोपी की आयु का निर्धारण किशोर न्याय कानून के अंतर्गत ही किया जाएगा. किशोर न्याय कानून के अंतर्गत हाई स्कूल प्रमाणपत्र आयु निर्धारण के लिए मान्य सबूत है। ऐसे में जब हाई स्कूल प्रमाणपत्र मौजूद हो तो अन्य साक्ष्य की आवश्यकता नहीं होगी। कोर्ट ने प्राथमिक विद्यालय के रजिस्टर की प्रविष्टि के आधार पर आयु निर्धारण न करने के आदेश को सही माना। उच्च न्यायालय ने निचली अदालत के आदेश को वैध करार दिया।          सुरेंद्र सिंह की ओर से दाखिल पुनरीक्षण याचिका को न्यायालय ने खारिज करते हुए यह बात कही। याचिका में अतिरिक्त जिला जज जालौन उरई के विपक्षी रामू सिंह को किशोर ठहराने के आदेश को चुनौती दी गई थी। शिकायत कर्ता

इलाहाबाद उच्च न्यायालय का लेखपालों की पैंशन पर महत्वपूर्ण निर्णय

उच्च न्यायालय इलाहाबाद में दायर याचिका पर याची लेखपाल संघ की ओर से तर्क दिया गया कि उनका चयन एवं प्रशिक्षण सत्र 2003-04 में अगस्त 2004 में प्रशिक्षण पूरा हो गया था। इस आधार पर याचिकाकर्ताओं ने अपने वेतन से हो रही कटौती को पुरानी पेंशन योजना  के अंतर्गत करने की मांग की थी।  विस्तार इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक अप्रैल 2005 के पहले चयनित लेखपालों को पुरानी पेंशन योजना बहाल कर दी है। इसके साथ ही मामले में सरकार से जवाब तलब भी किया है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने यूपी लेखपाल संघ के कोषाध्यक्ष विनोद कुमार कश्यप की याचिका पर अंतरिम आदेश जारी करते हुए अप्रैल 2005 से पहले चयनित लेखपालों की पेंशन पुरानी पेंशन योजना  के अंतर्गत वेतन से कटौती करने को कहा है। याचिका पर न्यायमूर्ति सरल श्रीवास्तव की एकल खंडपीठ सुनवाई कर रही है।          याची लेखपाल संघ की ओर से तर्क दिया गया कि उनका चयन एवं प्रशिक्षण सत्र 2003-04 में अगस्त 2004 में प्रशिक्षण पूरा हो गया था। इस आधार पर याचिकाकर्ताओं ने अपने वेतन से हो रही कटौती को पुरानी पेंशन योजना  के अंतर्गत करने की मांग की थी। याची के अधिवक्ता ने तर्क दिया कि हाईको

क्या पुलिस आई टी एक्ट की धारा 66ए के अंतर्गत रिपोर्ट दर्ज कर सकती हैं और न्यायालय आरोप पत्र का संज्ञान ले सकते हैं। can police register the FIR and court take cognizance under section 66A of IT act.

धारा 66ए आईटी एक्ट पुलिस एफआईआर दर्ज नहीं कर सकती और न्यायालय आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने डीजीपी, यूपी की ज़िला न्यायालयों को निर्देश दिया    इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सोमवार को उत्तर प्रदेश के सभी जिला न्यायालयों और पुलिस महानिदेशक को निर्देश दिया कि आईटी अधिनियम, 2000 की धारा 66 ए के तहत कोई एफआईआर दर्ज ना की जाए और उक्त धारा के तहत दायर किए गए आरोप पत्र का कोई भी अदालत संज्ञान न ले।    जस्टिस राजेश सिंह चौहान की खंडपीठ ने यह निर्देश जारी किया। उच्च न्यायालय ने यह नोट किया था कि आईटी अधिनियम की धारा 66ए को श्रेया सिंघल बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2015) 5 एससीसी 1 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने पहले ही रद्द कर दिया है।           उच्च न्यायालय ने यह निर्णय हर्ष कदम की याचिका पर सुनवाई कर दिया है, जिसमें आईटी अधिनियम, 2008 की धारा 66 ए के तहत यूपी पुलिस द्वारा प्रस्तुत आरोप पत्र और विशेष मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, लखनऊ द्वारा जारी समन आदेश को चुनौती दी गई थी।        याचिकाकर्ता के अधिवक्ता द्वारा यह तर्क दिया गया था कि आक्षेपित एफआईआर गलत है क्योंकि याचिकाकर्त

क्या नामांकन के समय वकील द्वारा लंबित अपराधिक मामले को छिपाना नामांकन को रद्द करने का आधार है।is concealment of pending criminal matter at the time of registration by advocate the basis of cacelation of registration

उच्चतम न्यायालय ने मद्रास उच्च न्यायालय के एक निर्णय की पुष्टि की है, जिसमें एक वकील के नामांकन को रद्द करने के बीसीआई के फैसले को बरकरार रखा गया है, क्योंकि वकील ने इस तथ्य को छुपा लिया था कि नामांकन के वक्त उसके विरुद्ध एक आपराधिक मामला लंबित था।                 न्यायमूर्ति एमआर शाह और न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना की पीठ ने एक एसएलपी में निर्देश जारी किया जिसमें याचिकाकर्ता-अधिवक्ता के नामांकन को रद्द करने की पुष्टि करने वाले मद्रास उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती दी गई थी।        बेंच ने फैसला सुनाया कि वकील ने उसके खिलाफ एक आपराधिक मामले से संबंधित तथ्यों को दबा दिया था, इसलिए याचिकाकर्ता को अधिवक्ता अधिनियम की धारा 26 (1) के अंतर्गत बार काउंसिल ऑफ इंडिया  द्वारा हटाया जाना चाहिए। न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्ता ने यह भी खुलासा नहीं किया कि वह एक सीए फर्म में स्लीपिंग पार्टनर भी है।                न्यायालय के अनुसार, सामग्री को छिपाना एक गंभीर मुद्दा है, इसलिए अधिवक्ता के नामांकन को रद्द करने का बीसीआई का आदेश सही है और किसी भी अवैधता से ग्रस्त नहीं है।

क्या अपराध में प्रयुक्त शस्त्र की बरामदगी अभियोजन के मामले को अविश्वसनीय बना देगी।is the recovery of arms make unreliable the procecution case

       सुप्रीम कोर्ट ने दिनांक 9/12/2021 को माना कि अपराध में प्रयुक्त हथियार की बरामदगी अभियोजन पक्ष के मामले को अविश्वसनीय नहीं करेगी जो कि प्रत्यक्ष साक्ष्य पर निर्भर करता है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि एक बैलिस्टिक विशेषज्ञ द्वारा रिपोर्ट पेश करने में विफलता, जो प्रकृति और चोट के कारण की गवाही दे सकती है, विश्वसनीय प्रत्यक्ष साक्ष्य पर संदेह जताने के लिए पर्याप्त नहीं है। जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस ए एस बोपन्ना और जस्टिस विक्रम नाथ ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती देने वाली आरोपी द्वारा दायर एक अपील को खारिज कर दिया, जिसमें भारतीय दंड संहिता की धारा 34 के साथ पढ़ते हुए ३०२ भारतीय दण्ड संहिता के तहत आजीवन कारावास की सजा की पुष्टि की गई थी।       वाद के  तथ्य       मृतक और इदरीश आरोपी कथित तौर पर लड़ाई में शामिल थे शिकायतकर्ता, मृतक के भाई ने दावा किया कि दुर्भाग्यपूर्ण दिन के समय, इदरीश ने मृतक पर गोली चलाई थी, जब अपीलकर्ता ने इदरीश को "दुश्मन मिल गया" कहकर उकसाया था। कथित तौर पर, मृतक की छाती में गोली लगने से चोट के कारण उसकी मृत्यु हो गई थी। शिकायतकर्ता,

क्या सह अपराधियों के खिलाफ आरोपपत्र दाखिल न करना आरोपित अपराधी के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही को रद्द करने का आधार हो सकता है।

     बैंक को धोखा देने और संपत्ति के बेईमान वितरण को प्रेरित करने के लिए आपराधिक साजिश से जुड़े एक मामले में, जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस बीवी नागरत्ना की बेंच ने हाल ही में निर्णय दिया है कि “केवल इसलिए कि कुछ अन्य व्यक्ति जिनके द्वारा अपराध किया हो सकता है, लेकिन उनके विरुद्ध आरोप पत्र दाखिल नहीं किया गया था तो यह उस अभियुक्त पर आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने का आधार नहीं हो सकता जिसके विरुद्ध आरोप पत्र दाखिल किया गया है।        इस मामले में, शिकायतकर्ता बैंक ने अतिरिक्त मुख्य मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट, बैंगलोर के न्यायालय के समक्ष सीआरपीसी की धारा 200 के तहत प्रतिवादियों के खिलाफ सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत शिकायत दर्ज की थी।    इसके बाद, चिकपेट पुलिस स्टेशन में धारा 120 बी, 408, 409, 420 और 149 के तहत प्राथमिकी दर्ज की गई थी। जांच पूरी होने के बाद, आरोपी संख्या १  के खिलाफ आरोप पत्र दायर किया गया था। लेकिन अभियुक्त संख्या 2 और 3 के खिलाफ नहीं।      प्रतिवादी संख्या १ ने बाद में आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के लिए उच्च न्यायालय में धारा 482 सीआरपीसी के तहत एक याचिका दायर की।      

क्या 7 वर्ष से कम अनुभव रखने वाला न्यायिक अधिकारी उच्च न्यायिक अधिकारी सीधी भर्ती में आवेदन नहीं कर सकता। can a judicial officer having experience less than 7 years not apply in district recruitment for higher judiciary

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने हाल ही में कहा कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 233 के तहत, एक न्यायिक अधिकारी, अपने पिछले अनुभव की परवाह किए बिना, 7 साल के अनुभव के साथ एक वकील के रूप में आवेदन नहीं कर सकता है और किसी भी रिक्ति पर नियुक्ति के लिए प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकता है।   न्यायमूर्ति आशुतोष श्रीवास्तव और न्यायमूर्ति प्रिंकर दिवाकर की खंडपीठ ने आगे स्पष्ट किया कि उनका जिला न्यायाधीश के पद पर कब्जा करने का मौका अनुच्छेद 233 के तहत बनाए गए नियमों और अनुच्छेद 309 के प्रावधान के अनुसार पदोन्नति के माध्यम से होगा।    कोर्ट के सामने मामला  मूल रूप से 5 न्यायिक अधिकारियों की बैंच इस याचिका पर सुनवाई कर रही थी जो एमपी न्यायिक अधिकारी सदस्य हैं।  मप्र राज्य में न्यायिक सेवाएं और न्यायिक अधिकारी के रूप में कार्यरत  उन्होंने तर्क दिया कि अधिवक्ता के रूप में उनके पास 7 साल का अनुभव होने के बावजूद, वे जिला न्यायाधीश के पद के लिए आवेदन नहीं कर सकते क्योंकि वे न्यायिक अधिकारी हैं, जिन्हें यू.पी. के नियम 5 के तहत प्रतिबंधित कर दिया गया है।  उच्च न्यायिक सेवा नियम, 1975 सीधी भर्ती के लिए आवेदन करने पर न्

क्या दस्तावेज का पंजीकरण दिवानी न्यायालय द्वारा पक्षों के अधिकारों निर्णय के अधीन है।is the registration of sale deed under judgement of civil court to decide right of parties

मंगलवार को उच्चतम न्यायालय ने दोहराया कि किसी दस्तावेज़ का पंजीकरण हमेशा सक्षम दीवानी न्यायालय द्वारा पक्षों के अधिकारों के अधिनिर्णय के अधीन होगा। तत्काल मामले में, अपीलकर्ता ने मद्रास हाई कोर्ट को एक बिक्री विलेख को रद्द करने की मांग करते हुए कहा कि इसे प्रतिवादी ने उनके पक्ष में निष्पादित किया था।    हाई कोर्ट की एकल पीठ ने फैसला सुनाया था कि एक बार बिक्री विलेख निष्पादित हो जाने के बाद, भूमि का स्टूप अपीलकर्ताओं को हस्तांतरित कर दिया जाता है, और जब तक कि अपीलकर्ताओं की सहमति न हो, बिक्री विलेख को रद्द नहीं किया जा सकता है। इस आदेश के ख़िलाफ़ अपील को हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच ने खारिज कर दिया था।                 सुप्रीम कोर्ट में, अपीलकर्ता के अधिवक्ता ने तर्क दिया कि एक पंजीकृत बिक्री विलेख को रद्द करने की अनुमति नहीं है और यह सार्वजनिक नीति के खिलाफ भी है। यह आगे तर्क दिया गया है कि पंजीकरण अधिनियम के तहत इस तरह के एकतरफा रद्दीकरण की अनुमति नहीं है।         दूसरी ओर, प्रतिवादी के  अधिवक्ता वी चितंबरेश ने प्रस्तुत किया कि अपीलकर्ताओं ने दीवानी मामले में अपने लिखित बयान दर्ज किए हैं औ

क्या प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज होने पर उचित मूल्य की दुकान का लाइसेंस रद्द किया जा सकता है। can lisence of Kota dealer be dismissed on the registration of FIR.

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया है कि प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने के साथ-साथ लंबित आपराधिक मामला उचित मूल्य की दुकान के लाइसेंस को रद्द करने का आधार नहीं हो सकता है। जस्टिस नीरज तिवारी  जगदंबा प्रसाद की रिट याचिका पर सुनवाई कर रहे थे, जिन्होंने अपनी इस याचिका में दावा किया था कि उचित मूल्य की दुकान के लिए उनका लाइसेंस उप मंडल मजिस्ट्रेट, मेजा, इलाहाबाद द्वारा अक्टूबर 2017 में रद्द कर दिया गया था, क्यूँकि उसके खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज हो गया  है। याचिकाकर्ता ने अदालत के समक्ष दावा किया कि, आज तक, याचिकाकर्ता के खिलाफ कोई जांच या प्रक्रिया शुरू नहीं हुई है और न ही लंबित  है, और उसे उपरोक्त आपराधिक मामले में  जमानत पर भी रिहा किया गया है। गौरतलब है कि याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि अगस्त 2002 के शासनादेश के तहत लाइसेंस जारी होने के बाद आपराधिक मामला दर्ज होने पर उचित मूल्य की दुकान का लाइसेंस रद्द करने का कोई प्रावधान नहीं है। शुरुआत में, अदालत ने कहा कि अनिल कुमार दुबे बनाम यूपी राज्य और अन्य ,सिविल विविध रिट याचिका संख्या १६७२३ /2010 में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पूर्व में भी माना है

क्या बहू का अधिकार परिवार में बेटी से अधिक है।is the right of wife greater than daughter in family

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली में नई व्यवस्था बनाते हुए बहू को भी परिवार की श्रेणी में रखने काआदेश दिया है। इसके साथ ही सरकार से पांच अगस्त 2019 के आदेश में बदलाव करने का निर्देश दिया है। उच्च न्यायालय ने कहा कि परिवार में बेटी से ज्यादा बहू का अधिकार है। लेकिन, उत्तर प्रदेश आवश्यक वस्तु (वितरण के विनियम का नियंत्रण) आदेश 2016 में बहू को परिवार की श्रेणी में नहीं रखा गया है और इसी आधार पर उसने (प्रदेश सरकार) 2019 का आदेश जारी किया है, जिसमें बहू को परिवार की श्रेणी में नहीं रखा गया है। इस वजह से बहू को उसके अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता है। परिवार में बहू का अधिकार बेटी से अधिक है। फिर बहू चाहे विधवा हो या न हो। वह भी बेटी (विधवा हो या तलाकशुदा) की तरह ही परिवार का हिस्सा है।          उच्च न्यायालय ने अपने इस आदेश में उत्तर प्रदेश पॉवर कॉरपोरेशन लिमिटेड (सुपरा), सुधा जैन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, गीता श्रीवास्तव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के केस का हवाला भी दिया और याची पुष्पा देवी के आवेदन को स्वीकार करने का निर्देश देते हुए उसके नाम से राशन की दुकान का आवंटन करन

क्या पीड़ित का निवास बताने वाला व्यक्ति भी विधि विरुद्ध जमाव का सदस्य हो जाता है।is a person who indicate the house of victim also be the member of unlowfull assembly.

सुप्रीम कोर्ट ने हत्या के एक मामले में एक व्यक्ति की दोषसिद्धि को रद्द करते हुए हाल ही में कहा है कि किसी व्यक्ति को महज इसलिए गैर-कानूनी जमाव का हिस्सा नहीं माना जा सकता कि उसने हत्यारी भीड़ को पीड़ित का निवास बताया था। उस व्यक्ति को गैर-कानूनी भीड़ के सामान्य उद्देश्य का साझेदार नहीं माना जा सकता। न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति एमएम सुंदरेश की पीठ ने यह कहते हुए आगाह किया कि अदालतों को अपराध के सामान्य उद्देश्य को साझा करने के लिए अपराध के केवल निष्क्रिय दर्शकों को भारतीय दंड संहिता की धारा 149 के माध्यम से दोषी ठहराने की प्रवृत्ति से परहेज करना चाहिए। इस मामले  में, अपीलकर्ता उन 32 व्यक्तियों में से एक था, जिन्हें एक व्यक्ति की हत्या के लिए आईपीसी की धारा 149 के साथ पठित धारा 147/148/324/302/201 के तहत अपराधों के लिए आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। अपीलकर्ता की भूमिका यह थी कि उसने हत्यारे गिरोह को मृतक के स्थान के बारे में सूचित किया। विचारण न्यायालय ने यह मानते हुए उसे हत्या के लिए सजा सुनाई कि वह गैरकानूनी जमाव के सामान्य उद्देश्य का हिस्सेदार है। इस फैसले को गौहाटी ह

उच्च न्यायालय इलाहाबाद ने एन डी पी एस मामले में दुर्भानापूर्ण रुप से मुकदमा चलाने वाले पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही करने का आदेश दिया।

     उच्च न्यायालय इलाहाबाद ने हाल ही में उत्तर प्रदेश पुलिस कर्मियों को 29 किलोग्राम गांजा (भांग) बरामद मामले में एक व्यक्ति को आधी रात को उसके घर से उठाने और एनडीपीएस मामले में दुर्भावनापूर्ण रूप से मुकदमा चलाने के लिए भारी फटकार लगाई। न्यायमूर्ति राहुल चतुर्वेदी की खंडपीठ ने दोषी पुलिसकर्मियों के खिलाफ जांच और दोषी पाए जाने पर उनके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने का आदेश दिया। कोर्ट के समक्ष मामला अदालत के समक्ष जमानत आवेदक पर यूपी पुलिस द्वारा एनडीपीएस [नारकोटिक्स ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस] अधिनियम अपराध के लिए मामला दर्ज किया गया था, यह दावा करने के बाद कि उन्होंने 11 जून, 2021 को उसके पास से लगभग 29 किलोग्राम गांजा बरामद किया था और इसके बाद उसे गिरफ्तार किया। आवेदक ने अदालत के समक्ष दावा किया कि जिस तरीके से उसे मामले में शामिल/घसीटा जा रहा है, वह पुलिस द्वारा एक विशेष दृष्टिकोण और आवेदक को पकड़ने में उनके द्वारा झूठे निहितार्थ को दर्शाता है। आवेदक के वकील ने यह तर्क दिया कि वास्तव में उसे हाथरस स्थित उसके आवास से चार नकाबपोश व्यक्तियों ने सिविल ड्रेस में उठा लिया था। जब उसकी पत

न्यायिक अधिकारी के साथ दुर्व्यवहार करने पर माफी स्वीकार करने का प्रश्न।

            न्यायालय की अवमानना कानून के तहत आरोपों से घिरे दो पुलिसकर्मियों की अर्जियों पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि यदि आपने किसी न्यायिक अधिकारी के साथ दुर्व्यवहार किया है, तो 'माफी स्वीकार' करने का प्रश्न ही कहां है। इन दोनों पुलिसकर्मियों पर न्याय प्रशासन में कथित रूप से दखल देने को लेकर आरोप तय किये गए हैं। शीर्ष अदालत इन पुलिसकर्मियों द्वारा मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के 2018 के आदेश के विरूद्ध अलग-अलग दायर की गयी अर्जियों पर सुनवाई कर रही थी।  मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा था कि 2017 में एक न्यायिक अधिकारी का कथित रूप से अपमान करने को लेकर इन पुलिसकर्मियों के विरूद्ध न्यायालय की अवमानना कानून के प्रावधानों के तहत मामला बनता है। न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर एवं न्यायमूर्ति सी टी रविकुमार की पीठ ने इन अर्जियों पर सुनवाई करते हुए उच्च न्यायालय के आदेश में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया।         याचिकाकर्ताओं में से एक के अधिवक्ता ने कहा कि उनके मुवक्किल ने इस मामले में उच्च न्यायालय के सामने 'बिना शर्त माफी मांग' ली है, लेकिन उसे स्वीकार न

क्या लापरवाही के लिए लोकसेवकों के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही हो सकती है। can be taken legal proceedings against public servent

       इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने हाल ही में अवैधानिक पदार्थ जब्त करने वाले अधिकारियों के खिलाफ मामला दर्ज करने का आदेश दिया। इन अधिकारियों ने एक व्यक्ति से तलाशी के दौरान कफ सिरप बरामद किया और उसे साइकोट्रोपिक पदार्थ के रूप में उसे जब्त कर लिया। बाद में उस व्यक्ति को जमानत दे दी।          न्यायमूर्ति पंकज भाटिया की खंडपीठ ने मामले में दर्ज एफआईआर के साथ-साथ मेडिकल रिपोर्ट देखते हुए कहा कि यह अधिकारी द्वारा की गई तलाशी और जब्ती शक्तियों का स्पष्ट दुरुपयोग था।  मामले का संक्षिप्त विवरण           एक कार से 100 एमएल की 1540 बोतलें बरामद हुई। इनमें एक रैपर था। 536 खाली बोतलें और पैकेजिंग कैप युक्त दो प्लास्टिक बैग जब्त किए गए और तीन लोगों को गिरफ्तार किया गया।ये बॉटल जब्त की गई, क्योंकि जब्ती पक्षकार ने पाया कि जो दवाएं ले जाई जा रही थीं, वे नकली दवाएं थीं। जब्त की गई दवा के रैपर पर "क्लोरफेनिरामाइन मालेक और कोडीन फॉस्फेट सिरप (मैक्स कैफिन)" लिखा हुआ था। सामग्री को 'कोडीन फास्फेट' पाया गया और यह क्लोरफेनिरामाइन मालियेट के लिए की गई जांच में निगेटिव पाया गया ।   एफआईआर में

संज्ञान लेने के आदेश में अनियमितता से अपराधिक विचारण की कार्यवाही समाप्त नहीं होगी।

    सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि संज्ञान लेने के आदेश में अनियमितता से आपराधिक ट्रायल की कार्यवाही समाप्त नहीं होगी।     न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना की पीठ कर्नाटक उच्च न्यायालय के उस फैसले के खिलाफ दायर एक अपील पर फैसला कर रही थी, जिसमें अपीलकर्ता की उसके खिलाफ आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने की मांग वाली याचिका को खारिज कर दिया गया था। अपीलकर्ता जो एक कंपनी का प्रबंध निदेशक था, खान और खनिज (विकास और विनियमन) अधिनियम और भारतीय दंड संहिता के तहत अनधिकृत खनन से संबंधित अपराधों के लिए ट्रायल का सामना कर रहा था। अपीलकर्ता द्वारा उठाए गए तर्कों में से एक यह था कि एमएमडीआर अधिनियम के तहत विशेष अदालत को धारा 209 के तहत मजिस्ट्रेट द्वारा मामला दर्ज किए बिना अपराधों का संज्ञान लेने की कोई शक्ति नहीं थी। इसलिए, यह तर्क दिया गया था कि संज्ञान लेने वाला आदेश अनियमित था और इसलिए कार्यवाही को दूषित कर दिया गया था।      सुप्रीम कोर्ट ने सहमति व्यक्त की कि विशेष अदालत के पास उस प्रभाव के एक विशिष्ट प्रावधान के अभाव में, धारा 209 के तहत मजिस्ट्रेट द्

बार एसोसिएशन के पदाधिकारियों से संबंधित विवादों को रिट याचिका में तय नहीं किया जा सकता- इलाहाबाद हाईकोर्ट। how can be decided the disputes of bar association.

                इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने हाल ही के अपने निर्णय में कहा कि बार एसोसिएशन के पदाधिकारियों से संबंधित विवादों को एक रिट याचिका में तय नहीं किया जा सकता क्योंकि बार एसोसिएशन निजी निकाय हैं। यह निर्णय न्यायमूर्ति अश्विनी कुमार मिश्रा और न्यायमूर्ति विक्रम चौहान की पीठ ने अधिवक्ता सरदार जितेंद्र सिंह द्वारा दायर एक याचिका में किया, जिन्होंने तहसील बार एसोसिएशन, मुजफ्फर नगर के अध्यक्ष के लिए चुनाव लड़ा और दूसरे स्थान पर रहे।  जितेन्द्र सिंह ने अपनी याचिका में कहा कि प्रतिवादी संख्या 4 को अध्यक्ष चुना गया था, लेकिन बार एसोसिएशन की कुछ कार्यवाही के कारण शपथ नहीं दिलाई गई। उन्होंने कहा कि चूंकि निर्वाचित व्यक्ति ने शपथ नहीं ली है, इसलिए उन्हें अध्यक्ष बनना चाहिए क्योंकि वे दूसरे नंबर पर आए हैं।         बार एसोसिएशन के वकील ने तर्क दिया कि न तो रिट विचारणीय है और न ही याचिकाकर्ता को अध्यक्ष घोषित किया जा सकता है क्योंकि उसे उच्चतम मत प्राप्त नहीं हुए हैं। उन्होंने आगे कहा कि ऐसा कोई उपनियम नहीं है जिसके तहत दूसरे नंबर पर आने वाले व्यक्ति को अध्यक्ष घोषित किया जा सके।          बहस

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