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Showing posts from December 1, 2021

जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते

 इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक निर्णय में कहा है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (डी) के अनुसार, जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते, इसके बजाय इसे शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए। न्यायमूर्ति सैयद आफताफ हुसैन रिजवी ने विमल दुबे और एक अन्य द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482  के अंतर्गत दायर याचिका को स्वीकार कर ये निर्णय दिया। आवेदकों के अधिवक्ता ने मुख्य रूप से तर्क दिया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 323 और 504 के अंतर्गत एक एनसीआर पंजीकृत किया गया था और उसके बाद जांच की गई और आवेदकों के विरुद्ध आरोप पत्र प्रस्तुत किया गया।  यह तर्क दिया गया कि मजिस्ट्रेट ने पुलिस रिपोर्ट को देखे बिना और कानून के प्रावधानों के खिलाफ अपराध का संज्ञान लिया, क्योंकि धारा 2 (डी) सीआरपीसी के अनुसार, यदि जांच के बाद पुलिस रिपोर्ट में असंज्ञेय अपराध का खुलासा होता है, तो यह शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए और जांच अधिकारी/पुलिस अधिकारी को शिकायतकर्ता माना जाएगा और शिकायत मामले की प्रक्रिया का पालन किया जाना है। धारा 2(डी) सीआरपीसी के प्रावध

संज्ञान लेने के आदेश में अनियमितता से अपराधिक विचारण की कार्यवाही समाप्त नहीं होगी।

    सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि संज्ञान लेने के आदेश में अनियमितता से आपराधिक ट्रायल की कार्यवाही समाप्त नहीं होगी।     न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना की पीठ कर्नाटक उच्च न्यायालय के उस फैसले के खिलाफ दायर एक अपील पर फैसला कर रही थी, जिसमें अपीलकर्ता की उसके खिलाफ आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने की मांग वाली याचिका को खारिज कर दिया गया था। अपीलकर्ता जो एक कंपनी का प्रबंध निदेशक था, खान और खनिज (विकास और विनियमन) अधिनियम और भारतीय दंड संहिता के तहत अनधिकृत खनन से संबंधित अपराधों के लिए ट्रायल का सामना कर रहा था। अपीलकर्ता द्वारा उठाए गए तर्कों में से एक यह था कि एमएमडीआर अधिनियम के तहत विशेष अदालत को धारा 209 के तहत मजिस्ट्रेट द्वारा मामला दर्ज किए बिना अपराधों का संज्ञान लेने की कोई शक्ति नहीं थी। इसलिए, यह तर्क दिया गया था कि संज्ञान लेने वाला आदेश अनियमित था और इसलिए कार्यवाही को दूषित कर दिया गया था।      सुप्रीम कोर्ट ने सहमति व्यक्त की कि विशेष अदालत के पास उस प्रभाव के एक विशिष्ट प्रावधान के अभाव में, धारा 209 के तहत मजिस्ट्रेट द्

बार एसोसिएशन के पदाधिकारियों से संबंधित विवादों को रिट याचिका में तय नहीं किया जा सकता- इलाहाबाद हाईकोर्ट। how can be decided the disputes of bar association.

                इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने हाल ही के अपने निर्णय में कहा कि बार एसोसिएशन के पदाधिकारियों से संबंधित विवादों को एक रिट याचिका में तय नहीं किया जा सकता क्योंकि बार एसोसिएशन निजी निकाय हैं। यह निर्णय न्यायमूर्ति अश्विनी कुमार मिश्रा और न्यायमूर्ति विक्रम चौहान की पीठ ने अधिवक्ता सरदार जितेंद्र सिंह द्वारा दायर एक याचिका में किया, जिन्होंने तहसील बार एसोसिएशन, मुजफ्फर नगर के अध्यक्ष के लिए चुनाव लड़ा और दूसरे स्थान पर रहे।  जितेन्द्र सिंह ने अपनी याचिका में कहा कि प्रतिवादी संख्या 4 को अध्यक्ष चुना गया था, लेकिन बार एसोसिएशन की कुछ कार्यवाही के कारण शपथ नहीं दिलाई गई। उन्होंने कहा कि चूंकि निर्वाचित व्यक्ति ने शपथ नहीं ली है, इसलिए उन्हें अध्यक्ष बनना चाहिए क्योंकि वे दूसरे नंबर पर आए हैं।         बार एसोसिएशन के वकील ने तर्क दिया कि न तो रिट विचारणीय है और न ही याचिकाकर्ता को अध्यक्ष घोषित किया जा सकता है क्योंकि उसे उच्चतम मत प्राप्त नहीं हुए हैं। उन्होंने आगे कहा कि ऐसा कोई उपनियम नहीं है जिसके तहत दूसरे नंबर पर आने वाले व्यक्ति को अध्यक्ष घोषित किया जा सके।          बहस

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