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Showing posts from December 26, 2021

जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते

 इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक निर्णय में कहा है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (डी) के अनुसार, जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते, इसके बजाय इसे शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए। न्यायमूर्ति सैयद आफताफ हुसैन रिजवी ने विमल दुबे और एक अन्य द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482  के अंतर्गत दायर याचिका को स्वीकार कर ये निर्णय दिया। आवेदकों के अधिवक्ता ने मुख्य रूप से तर्क दिया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 323 और 504 के अंतर्गत एक एनसीआर पंजीकृत किया गया था और उसके बाद जांच की गई और आवेदकों के विरुद्ध आरोप पत्र प्रस्तुत किया गया।  यह तर्क दिया गया कि मजिस्ट्रेट ने पुलिस रिपोर्ट को देखे बिना और कानून के प्रावधानों के खिलाफ अपराध का संज्ञान लिया, क्योंकि धारा 2 (डी) सीआरपीसी के अनुसार, यदि जांच के बाद पुलिस रिपोर्ट में असंज्ञेय अपराध का खुलासा होता है, तो यह शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए और जांच अधिकारी/पुलिस अधिकारी को शिकायतकर्ता माना जाएगा और शिकायत मामले की प्रक्रिया का पालन किया जाना है। धारा 2(डी) सीआरपीसी के प्रावध

भारतीय दण्ड संहिता की धारा 397 के अंतर्गत अपराध के आवश्यक तत्व क्या है

शिकायतकर्ता की शिकायत दर्ज करने और जांच पूरी होने पर, पुलिस ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 392/397 और मध्य प्रदेश डकैती और व्यापार प्रभाव क्षेत्र अधिनियम १९८१  की धारा 11/13 के अंतर्गत आरोप पत्र दाखिल किया।           26 फरवरी, 2013 को विचारण न्यायालय ने अपीलकर्ता और छोटू के खिलाफ आईपीसी की धारा 392/397 और एमपीडीवीपीके अधिनियम, 1981 की धारा 11/13 के अंतर्गत आरोप तय किए। सबूतों का विश्लेषण करने पर, विचारण न्यायालय ने कहा कि अपीलकर्ता और उसके सह-आरोपी घटना में लिप्त थे और आरोप को साबित किया गया है। तदनुसार सजा और दोषसिद्धि करार दे दी।      विचारण न्यायालय के फैसले का विरोध करते हुए, अपीलकर्ता और सह-आरोपी ने उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, जिसमें उन्होंने तर्क दिया कि उनके खिलाफ मामले में झूठा आरोप लगाया गया था और आईपीसी की धारा ३९७ के अंतर्गत आरोप कायम नहीं रखा जा सकता है। उन्होंने आगे तर्क दिया कि आग्नेयास्त्र भले ही साबित हो गया हो, लेकिन इसका प्रयोग नहीं किया गया था और इस तरह धारा 397 आईपीसी के अंतर्गत आरोप तय नहीं होगा। सबूतों की विस्तार से समीक्षा करने के बाद, उच्च न्यायालय ने विचारण

क्या पुलिस सात वर्ष तक सजा के मामले मे मुकदमा दर्ज होते ही गिरफ्तार कर सकती है। can police arrest on registration of case in seven years imprisonment cases

लाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक मामले में यह निर्णय दिया है कि जब तक पुलिस जांच अधिकारी इस बात से संतुष्ट नहीं होते कि किसी मामले के आरोपी की गिरफ्तारी आवश्यक है, तब तक उसकी गिरफ्तारी न की जाए।          न्यायालय ने कहा कि पुलिस मुकदमा दर्ज होते ही आरोपी की सामान्य तरीके से गिरफ्तारी न करे। किसी भी व्यक्ति की गिरफ्तारी तभी की जाए, जब मामला सीआरपीसी की धारा 41ए के मानकों पर खरा उतरता हो।     न्यायालय ने कहा कि पुलिस अधिकारी गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के सामने पेश करने से पूर्व उसकी गिरफ्तारी को लेकर एक चेक लिस्ट तैयार करें और उसमें गिरफ्तारी के कारण का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया जाए। पुलिस अधिकारी को यह स्पष्ट रूप से कथन करना होगा कि मामले में अभियुक्त की गिरफ्तारी क्यों आवश्यक है। साथ ही मजिस्ट्रेट पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट का अवलोकन करें और उस पर अपनी सन्तुष्ट होने के बाद ही गिरफ्तारी के आदेश को आगे बढ़ाएं।      यह आदेश न्यायमूर्ति डॉ के जे ठाकर एवं न्यायमूर्ति गौतम चौधरी की खंडपीठ ने  विमल कुमार एवं तीन अन्य की याचिका पर सुनवाई करते हुए दिया है। न्यायालय ने यह आदेश सात साल से कम

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