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जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते

 इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक निर्णय में कहा है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (डी) के अनुसार, जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते, इसके बजाय इसे शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए। न्यायमूर्ति सैयद आफताफ हुसैन रिजवी ने विमल दुबे और एक अन्य द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482  के अंतर्गत दायर याचिका को स्वीकार कर ये निर्णय दिया। आवेदकों के अधिवक्ता ने मुख्य रूप से तर्क दिया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 323 और 504 के अंतर्गत एक एनसीआर पंजीकृत किया गया था और उसके बाद जांच की गई और आवेदकों के विरुद्ध आरोप पत्र प्रस्तुत किया गया।  यह तर्क दिया गया कि मजिस्ट्रेट ने पुलिस रिपोर्ट को देखे बिना और कानून के प्रावधानों के खिलाफ अपराध का संज्ञान लिया, क्योंकि धारा 2 (डी) सीआरपीसी के अनुसार, यदि जांच के बाद पुलिस रिपोर्ट में असंज्ञेय अपराध का खुलासा होता है, तो यह शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए और जांच अधिकारी/पुलिस अधिकारी को शिकायतकर्ता माना जाएगा और शिकायत मामले की प्रक्रिया का पालन किया जाना है। धारा 2(डी) सीआरपीसी के प्रावध

क्या किसी महिला को कारागार में निरूद्ध पति से दाम्पत्य संबंध स्थापित करने का अधिकार है

 क्या कारागार में निरूद्ध व्यक्ति से दाम्पत्य संबंध बनाने का उसकी पत्नी को कानूनी अधिकार है। आओ इसके सम्बन्ध में जाने एक व्यक्ति गुरुग्राम के जिला कारागार में हत्या के अपराध में निरूद्ध है। उसकी पत्नी अपने वंश को आगे बढ़ाने के लिए पति से दाम्पत्य संबंध स्थापित चाहती है। इस संबंध में पत्नी ने पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में एक अर्जी दाखिल की है। इस मामले पर उच्च न्यायालय की नियमित पीठ सुनवाई करेगी। पति से संबंधों के लिए महिला ने हाई कोर्ट में दायर की याचिका।   एक महिला ने अपने पति से वैवाहिक संबंध बनाने  के लिए पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में अर्जी दाखिल की  है। इस अर्जी में पत्नी ने अपने वंश वृद्धि के लिए कारागार में निरूद्ध पति से वैवाहिक संबंध स्थापित करने की मांग की है जिस पर उच्च न्यायालय की नियमित पीठ सुनवाई करेगी। अर्जी पर सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति एमएस रामचंद्र राव व जस्टिस एचएस मदान की पीठ ने कहा कि इस मामले में नियमित पीठ ही सुनवाई करे। इसी के साथ पीठ ने मामले को नियमित पीठ द्वारा सुनवाई के लिए 27 जनवरी तक स्थगित कर दिया। इससे पूर्व सुनवाई पर इस मामले में  उच्च न्याय

भारत में विवाह का पंजीकरण कैसे कराएं

  विवाह  प्रमाण पत्र  यदि आप विवाह प्रमाण पत्र बनवाना चाहते हैं तो उसके लिए विवाह पंजीकरण करवाना आवश्यक हैं । उसके लिए आपको अपने राज्य की आधिकारिक वेबसाइट पर जाकर ऑनलाइन आवेदन करना होगा। इससे समय और धन दोनों की बचत होगी तथा भाग दौड़ से भी बचा जा सकता है। इसके लिए आप ऑफलाइन आवेदन कर सकते  हैं। विवाह पंजीकरण कराने के लिए आपको एक निर्धारित शुल्क  भी अदा करना होगा। यदि आप समय से विवाह पंजीकरण नहीं करवाते हैं तो आपको जुर्माना भी देना पड़ सकता है। यह शास्ति की राशि अलग-अलग राज्यों के लिए अलग-अलग निर्धारित की गई है। विवाह पंजीकरण का उद्देश्य जैसे कि  सभी लोग जानते हैं कि शादी के बाद कुछ महिलाओं को कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है। जैसे कि घरेलू हिंसा, बाल विवाह, पति की मृत्यु हो जाने पर पति के रिश्तेदारों द्वारा घर से निकाला जाना आदि। इन्हीं समस्याओं को देखते हुए भारत सरकार द्वारा विवाह पंजीकरण अनिवार्य कर दिया गया है ताकि महिलाओं के साथ होने वाले इस दुर्व्यवहार को रोका जा सके। अब सभी धर्म के नागरिकों को यह पंजीकरण करवाना अनिवार्य है। विवाह पंजीकरण के लाभ तथा विशेषताएं  1.विवाह प्र

क्या बीमा कंपनी बीमाधारक द्वारा बताई वर्तमान चिकित्सा स्थिति का हवाला देकर दावा को खारिज कर सकती है।

 उच्चतम न्यायालय ने बीमा धारकों के पक्ष में एक बड़ा फैसला किया है। अब बीमा कंपनी बीमाधारक द्वारा बताई वर्तमान चिकित्सा स्थिति का हवाला देकर दावा को खारिज नहीं कर सकती। जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की बैंच ने कहा कि प्रस्तावक का कर्तव्य है कि वह बीमाकर्ता को दी जाने वाली जानकारी में सभी महत्वपू्र्ण तथ्यों का उल्लेख करें। यह माना जाता है कि प्रस्तावक बीमा से जुड़ी सभी जानकारी को जानता है। बैंच ने कहा, 'हालांकि वह जो जानकारी देता है, वह उसके वास्तविक ज्ञान तक सीमित नहीं है।' यह उन भौतिक तथ्यों तक है, जो कार्य की सामान्य प्रक्रिया में उसे जानना चाहिए। न्यायालय ने आगे कहा कि एक बार बीमाधारक की मेडिकल स्थिति का आकलन करने के बाद पॉलिसी जारी हो जाए, तो बीमाकर्ता उस मौजूदा चिकिस्ता स्थिति का हवाला देकर दावा खारिज नहीं कर सकता जिसे बीमाधारक ने प्रस्ताव फॉर्म में बताया था।  सर्वोच्च न्यायालय मनमोहन नंदा द्वारा राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग के आदेश के विरुद्ध संस्थित अपील पर सुनवाई कर रहा था। दरअसल यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस कंपनी ने यूएस में इलाज के खर्चे का नंदा का दावा खारिज कर दिया था

क्या किराएदार किसी भवन का स्वामी बन सकता है और किरायानामा 11 महीने ही क्यों बनाया जाता है

 किराया अनुबंध और किरायानामा के लिए क्या क्या कार्य आवश्यक होते हैं यह जानकारी प्राप्त करना बहुत जरूरी होता है ताकि भविष्य में किसी परेशानी का सामना न करना पड़े। तो आओ जानते हैं उन सभी आवश्यक बातों को। जो कि निम्न प्रकार हैं-  अनुबंध और किराए की रसीद आवश्यक है किराएदारी के मामलों  में अक्सर यह देखा गया है कि किराया एग्रीमेंट और किराए की रसीद के सम्बन्ध में मकान स्वामी और किराएदार सतर्क नहीं होते हैं। भवन स्वामी भी अपना किरायानामा बनवाने में चूक करते है और किराएदार भी इस पर बल नहीं देते हैं जबकि यह बहुत घातक हो सकता है। किसी भी संपत्ति को किराए पर देने  पूर्व उसका किरायानामा निष्पादित किया जाना चाहिए और हर महीने के किराए की वसूली की  भवन स्वामी द्वारा किराएदार को किराया प्राप्ति की रसीद देना चाहिए । ऐसा करने से  सबूत भविष्य के लिए उपलब्ध रहते हैं। और इससे  भविष्य में यह साबित किया जा सकता है कि जो व्यक्ति भवन पर अपना कब्जा बना कर बैठा है वह भवन पर एक किराएदार की हैसियत से है। यदि ऐसा कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं हो तो भवन पर कब्जा रखने वाला व्यक्ति यह भी क्लेम कर सकता है कि वह भवन स्वामी की

किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी कब आवश्यक है

   इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने रूटीन गिरफ्तारी को लेकर अहम निर्देश दिया है। हाईकोर्ट ने कहा है कि विवेचना के लिए पुलिस कस्टडी में पूछताछ के लिए जरूरी होने पर ही गिरफ्तारी की जाए। कोर्ट ने कहा है कि गिरफ्तारी अंतिम विकल्प होना चाहिए. गैरजरूरी गिरफ्तारी मानवाधिकार का हनन है। जोगिंदर सिंह केस में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय पुलिस आयोग की रिपोर्ट के हवाले से कहा है कि रूटीन गिरफ्तारी पुलिस में भ्रष्टाचार का स्रोत है। रिपोर्ट कहती है 60 फीसदी गिरफ्तारी गैरजरूरी और अनुचित होती है। जिस पर43.2 फीसदी जेल संसाधनों का खर्च हो जाता है।    उच्च न्यायालय ने कहा कि वैयक्तिक स्वतंत्रता बहुत ही महत्वपूर्ण मूल अधिकार है। बहुत जरूरी होने पर ही इसमें कटौती की जा सकती है। गिरफ्तारी से व्यक्ति के सम्मान को ठेस पहुंचती है। इसलिए अनावश्यक गिरफ्तारी से बचना चाहिए। कोर्ट ने दहेज उत्पीड़न, मारपीट गाली-गलौज करने के आरोपी राहुल गांधी की अग्रिम जमानत मंजूर कर ली है। कोर्ट ने कहा है कि गिरफ्तारी के समय 50 हजार के मुचलके व दो प्रतिभूति लेकर जमानत पर रिहा कर दिया जाए। यह आदेश जस्टिस अजीत सिंह के एकल पीठ ने गौतमबुद्धनगर क

क्या लिव-इन रिलेशनशिप में रहने के लिए विवाह योग्य उम्र होना आवश्यक है।

   लिव-इन रिलेशनशिप में एक युवा जोड़े की सुरक्षा की माँग करने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने मंगलवार को फैसला दिया है कि यह तथ्य कि वयस्क लड़का विवाह योग्य उम्र का नहीं है, युवा जोड़े को अनुच्छेद 21 के तहत उनके मौलिक अधिकार से वंचित नहीं करता है।    न्यायमूर्ति हरनरेश सिंह गिल संविधान के अनुच्छेद 226 के अंतर्गत दायर एक रिट याचिका पर सुनवाई कर रहे थे जिसमें याचिकाकर्ताओं ने अपने माता-पिता से पुलिस सुरक्षा की मांग की, जिन्होंने उनके लिव-इन रिलेशनशिप पर आपत्ति जताई थी।   याचिकाकर्ता नंबर २ लड़का बालिग होने के बावजूद अभी विवाह योग्य उम्र तक नहीं पहुंचा था, जिस कारण दंपति के माता-पिता ने उन्हें धमकी दी थी।     उच्च न्यायालय ने वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, गुरदासपुर को निर्देश दिया कि यदि जीवन या स्वतंत्रता के लिए कोई खतरा महसूस होता है तो दंपति को सुरक्षा प्रदान करें।             याचिकाकर्ताओं के अधिवक्ता ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता लगातार खतरे में हैं क्योंकि उन्हें डर है कि उनके माता-पिता उनकी धमकियों को अंजाम दे सकते हैं और यहां तक ​​कि उनकी हत्या भी कर सकते ह

जाली जाति प्रमाण पत्र के आधार पर प्राप्त नियुक्ति को रद्द करना उचित है

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी द्वारा एक महिला सरकारी शिक्षक की सेवा समाप्त करने के आदेश को बरकरार रखा, जिसने अपनी नियुक्ति के लिए जाली जाति प्रमाण पत्र  जमा किया था। यह देखते हुए कि अपने आवेदन में, एक महिला सरकारी शिक्षक ने अपनी जाति को 'अंसारी' बताया था, लेकिन उसने नियुक्ति हासिल करते समय अनुसूचित जाति वर्ग से संबंधित जाति प्रमाण पत्र जमा कर दिया था, न्यायमूर्ति दिनेश कुमार सिंह की खंडपीठ ने उसके बर्खास्तगी आदेश को बरकरार रखा।  क्या था पूरा मामला            याचिकाकर्ता  को नवंबर 1999 में जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी, हरदोई द्वारा इस शर्त के साथ नियुक्ति दी गई थी कि भविष्य में यदि याचिकाकर्ता द्वारा दी गई कोई जानकारी या उसके द्वारा प्रस्तुत कोई भी दस्तावेज गलत या जाली पाया जाएगा, तो उसकी सेवाएं तत्काल समाप्त किये जाने योग्य होगी। याचिकाकर्ता ने अनुसूचित जाति वर्ग से संबंधित अपना जाति प्रमाण पत्र प्रस्तुत किया था। तत्पश्चात, हरदोई के जिला मजिस्ट्रेट के समक्ष एक शिकायत की हुईं जिसमें कथन था कि याचिकाकर्ता एक मुसलमान है और उसकी सेवा पुस्तिका में, उसके धर्म का उल

वकीलों के विरुद्ध शिकायत के निस्तारण के बारे में उच्चतम न्यायालय ने क्या कहा।

दिनांक 17/12/2021 को, उच्चतम न्यायालय ने सभी राज्य बार परिषदों को निर्देश दिया कि वे अधिवक्ताओं के विरुद्ध शिकायतों का निपटारा धारा ३५ अधिवक्ता अधिनियम के अंतर्गत एक वर्ष के अन्दर तेजी से करें, जैसा कि अधिवक्ता अधिनियम की धारा 36 बी में वर्णित है।                 न्यायालय ने यह भी कहा कि भारतीय विधिज्ञ परिषद के समक्ष कार्यवाहियों का भी तेजी से निपटारा किया जाना चाहिए।      न्यायमूर्ति एमआर शाह और न्यायमूर्ति बीवी नगरत्ना की खंडपीठ के अनुसार केवल असाधारण मामलों में ही वैध कारण के आधार पर कार्यवाही बार काउन्सिल ऑफ इंडिया को हस्तांतरित की जा सकती है।                   उच्चतम न्यायालय ने कहा कि पिछले 5 वर्षों में 1273 शिकायतें बीसीआई को हस्तांतरित की गई हैं, इसलिए ऐसी शिकायतों के निपटान के लिए एक तंत्र विकसित किया जाना चाहिए। उपर्युक्त निर्देशों/टिप्पणियों के अलावा, बेंच ने निम्नलिखित निर्देश भी जारी किए:-     बार काउन्सिल ऑफ इंडिया को शिकायतों को देखने के लिए सेवानिवृत्त न्यायिक अधिकारियों और अनुभवी अधिवक्ताओं को जांच अधिकारियों के रूप में सूचीबद्ध करने पर विचार करना चाहिए।      जांच अधिक

How fixed the capacity of child witness /बाल साक्षी की क्षमता का निर्धारण कैसे हो?

बाल  स क्षी कौन है ?      बाल साक्षी वह व्यक्ति है जिसकी आयु 16 वर्ष की पूरी नहीं हुई है। कभी -2 ऐसी परिस्थिति में अपराध कारित किया जाता है कि उस घटना का कोई व्यस्क व्यक्ति साक्षी उपलब्ध नहीं होता। और घटना स्थल पर केवल बाल साक्षी की उपलब्धता ही प्राप्त होती है तो वहाँ बाल साक्षी का साक्ष्य महत्वपूर्ण हो जाता है।         अभी माननीय उच्चतम न्यायलय के समक्ष एक हत्या का मामला पी रमेश बनाम राज् य प्रसतुत हुआ जिसमे अभियोजन के दो साक्षी आरोपी और मृतिका के नाबालिग बच्चे थे। विचारण न्यायालय ने उनके सबूतों को केवल इस आधार पर दर्ज नहीं किया कि वे उस व्यक्ति की पहचान करने में असमर्थ हैं जिसके सामने वे बयान दे रहे थे। अर्थात वे जज और वकीलों को नहीं जानते थे। यधपि बाल गवाहों ने यह कहा था कि वो अपनी माँ की उन परिस्थितियों में होने वाली मृत्यु के बारे में साक्ष्य देने के लिए आये हैं। विचारण न्यायालय ने अन्य साक्षयों के आधार पर आरोपी को भा दण्ड संहिता की धारा 302/498क के अंतर्गत दोषी ठहराया।     उक्त मामले में माननीय उच्च न्यायलय की राय       उच्च न्यायलय ने आरोपियों की अपील पर निर्णय दिया था कि

प्रोटेस्ट पीटिशन में अपनाई जाने वाली प्रकिया /process followed in protest petition

उच्चतम न्यायलय ने विष्णु कुमार तिवारी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य सु कोर्ट 2019 के वाद में यह व्यवस्था की है कि प्रोटेस्ट पीटिशन में कौन सी प्रकिया अपनायी जानी चाहिए ?       न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति के एम जोसैफ की खण्ड पीठ ने यह मत व्यक्त किया कि प्रोटेस्ट पीटिशन को परिवाद के रूप में लेना चाहिए। यदि वह एक परिवाद की आवश्यकताऔं को पूर्ण करता है तो मजिस्ट्रेट  दण्ड प्रकिया संहिता की धारा 200 एवं 202 की पालना कर सकता है।      बैंच ने यह भी कहा कि यदि मजिस्ट्रेट प्रोटेस्ट पीटिशन को परिवाद की तरह नहीं लेता तो परिवादी के लिए उपचार होगा कि वह एक नया परिवाद संस्थित करे। और मजिस्ट्रेट से दण्ड संहिता की धारा 200 एवं 202 की पालना करने की अपेक्षा करे।       उच्चतम न्यायालय ने इस विषय पर बहुत से निर्णयों का हवाला देते हुए कहा कि प्रोटेस्ट पीटिशन दायर करने का संहिता में कोई प्रावधान नहीं है परन्तु यह व्यवहार में है।     प्रोटेस्ट पीटिशन कोन दायर कर सकता है?            भगवन्त सिंह वाद ए आई आर 1985 सु कोर्ट 1285 के अनुसार यह अधिकार केवल सूचनादाता को है अन्य किसी को नहीं

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अंतर्गत उच्च न्यायलय की अंतर्निहित शक्तियां

     इस धारा के अंतर्गत ऐसे मामले आते हैं जिसमे कानून द्वारा न्यायालय के ऊपर यह निर्णय छोड दिया जाता है कि वह अपने विवेक से परिस्थिति के अनुसार निर्णय करे। इसलिए दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 को कानून में शामिल किया गया है। यहाँ हम यह भी जानेंगे कि इस धारा के अंतर्गत किस प्रकार के मामले आते हैं और वो किन परिस्थितियों में एवं किस प्रकार से निपटाये जायेंगे। इन्ही शक्तियों को हम न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों के रूप में जानते हैं।     धारा 482 दंड प्रक्रिया संहिता 1973 - इस संहिता की कोई भी बात उच्च न्यायलय की ऐसे आदेश देने की अंतर्निहित शक्ति को सीमित या प्रभावित करने वाली नहीं समझी जायेगी जो इस संहिता के अधीन किसी आदेश को प्रभावी करने के लिए या किसी न्यायालय की कार्यवाही का दुरुपयोग निवारित करने के लिए या अन्य प्रकार से न्याय के उद्देश्य की प्राप्ति सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक हो।     अर्थात इसमें कहा गया है कि उच्च न्यायलय की अंतर्निहित शक्तियों को इस संहिता के किसी प्रावधान से सीमित नहीं किया जा सकता है। यह वो अंतर्निहित शक्तियों हैं जो इस संहिता के अंतर्गत किसी आदेश को प

Weather Allegation Of Fault On His Advocate is Reasonable Cause For Delay condonation -क्या अपने वकील पर उपेक्षा का आरोप लगाना देरी को माँफ करने का उचित कारण है

  इस लेख में मैं माननीय उच्चतम न्यायालय के निर्णय के माध्यम से यह दर्षित करूंगा कि किसी विधिक मामले में देरी करने का आरोप अधिवक्ता पर लगाकर क्या देरी को माँफ कराया जा सकता है -     माननीय उच्चतम न्यायालय ने सिविल अपील संख्या 50-51/2009 ,एस्टेट आफिसर हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण एवं अन्य बनाम गोपी चन्द, के मामले में दूसरी अपील को 1942 दिन की देरी से दाखिल करने की देरी को माँफ करने से इनकार कर दिया। उक्त मामले में दूसरी अपील 1942 दिन की देरी से दाखिल की गई थी और देरी करने का आरोप अपने वकील पर लगाया गया था।   माननीय उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति ए एम सप्रे तथा न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी की पीठ ने उक्त याचिका पर फैसला देते हुए कहा कि उनके वकील ने समय पर उचित कदम नहीं उठाया और अपील देरी से दाखिल की गई, यह कथन 1942 दिन की देरी को माँफ करने का उचित कारण नहीं है।     न्यायालय ने कहा कि हमारी राय में यह अपीलकर्ता (उनके कानूनी प्रबंधकों ) की जिम्मेदारी है कि अपील समय पर दाखिल की जाय। और यदि अपीलकर्ता को लगता है कि उनका वकील मुकदमा में दिलचस्पी नहीं ले रहा है तो उन्हें तुरन्त दूसरे वकील की म

भारत में संविदा कैसे होती है /Contract in India

संविदा की परिभाषा -   भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 2(ज) के अनुसार, विधि द्वारा प्रवर्तनीय करार संविदा है।    संविदा के आवश्यक तत्व        (1) कोई करार किया गया हो।        (2) करार विधि द्वारा प्रवर्तनीय हो।   (1)करार -प्रत्येक वचन या वचन का वर्ग जो एक दूसरे के लिए प्रतिफल हो ,करार कहलाता है।   (2) विधि द्वारा प्रवर्तनीय करार - धारा 10 के अनुसार, वे सभी करार संविदा हैं जो संविदा करने के लिए सक्षम पक्षकारों की स्वतंत्र सहमति से किसी विधिपूर्ण प्रतिफल के लिए और विधिपूर्ण उद्देश्य से किये गये हैं एवं अभिव्यक्त रूप से शून्य घोषित नहीं किये गये हैं ।    इसलिये मान्य संविदा के लिए निम्नलिखित शर्तें पूर्ण होना आवश्यक है -    (1) पक्षकार सक्षम हों ।    (2) सम्मति स्वतंत्र हो ।    (3) प्रतिफल और उद्देश्य विधिपूर्ण हो।     (4) अभिव्यक्त रूप से शून्य न घोषित किये गये हों ।    (5) यदि अपेक्षित हो तो करार लिखित एवं रजिस्टर्ड होना चाहिए।            करार एवं संविदा में अन्तर   1. परिभाषा सम्बन्धी - विधि द्वारा प्रवर्तनीय करार संविदा हैं जबकि प्रत्येक वचन एवं वचनों का व

अवयस्क की संविदा का प्रभाव (Effect of contract with minor)

    भारतीय व्यस्कता अधिनियम की धारा 3 के अनुसार, अवयस्क वह व्यक्ति होता है जो 18 वर्ष से कम आयु का है।   अवयस्क की संविदा की प्रकृति         धारा 11 भारतीय संविदा अधिनियम के अनुसार, हर ऐसा व्यक्ति संविदा करने के लिए सक्षम है जो उस विधि के अनुसार जिसके वह अध्यधीन है, प्राप्तवय हो, और जो  स्वस्थ चित हो, और किसी विधि द्वारा जिसके वह अध्यधीन है, संविदा करने से निरार्हित न हो।   अवयस्क की संविदा आरम्भ से ही शून्य होती या शून्यकरणीय इस पर सदैव से मतभेद रहा है। परन्तु मोहरी बीबी  बनाम  धर्मदास घोष (1903) के वाद में प्रिवी कौंसिल ने इस मतभेद को समाप्त कर दिया और अभिनिश्चित किया कि अवयस्क की संविदा आरम्भ से ही शून्य होती है।           धर्मदास जो अवयस्क था। उसने कलकत्ता के एक महाजन ब्रहम्दत्त से 10,500 रुपये बन्धक विलेख लिखकर लिए थे। बन्धक विलेख लिखे जाने के समय ब्रहम्दत्त के एजेंट को धर्मदास की अवयस्कता के बारे मे जानकारी मिल गई थी। परन्तु इसके बावजूद विलेख लिखवा लिया गया था। अवयस्क की ओर से उसकी माँ ने वाद किया कि बन्धक विलेख रद्द कर दिया जाये, क्योंकि वह अवयस्क द्वारा निष्पादित किया गया

लोक सेवकों को प्राप्त संवैधानिक संरक्षण ( Protection For Public Servant Under Indian Constitution)

  सरकारी कार्य लोक सेवकों द्वारा किए जाते हैं इसलिए लोक सेवकों का निष्पक्षता एवं स्वतन्त्रता से कार्य करना भी आवश्यक होता है। इसलिए संविधान में लोक सेवकों को कुछ संरक्षण भी दिए गए हैं।     लोक सेवकों को राष्ट्रपति या राजपाल कभी भी उनके पद से हटा सकते हैं ।उनका सेवाकाल राष्ट्रपति या राजपाल के प्रसादपर्यन्त के अन्तर्गत होता है। फिर भी इस शक्ति पर निम्नलिखित प्रतिबंध लगाए गए हैं :-     1. इस शक्ति का प्रयोग अनुच्छेद 311 के अन्तर्गत किया जाना चाहिए। जिसके अन्तर्गत लोक सेवकों को निम्नलिखित संरक्षण प्राप्त हैं --   क. कोई भी लोक सेवक उसकी नियुक्ति करने वाले प्राधिकारी से निम्न श्रेणी के प्राधिकारी द्वारा नहीं हटाया जा सकता।   ख. किसी लोक सेवक को तब तक उसके पद से नहीं हटाया जा सकता, जब तक उसके विरुद्ध दोष सिद्ध नहीं हो जाता और उसे पूर्ण सुनवाई का अवसर प्रदान नहीं कर दिया जाता।   ग. यदि लोक सेवक को पदच्युत, पद से हटाने या पदावनत करने की शक्ति रखने वाला प्राधिकारी व्यवहारिक रूप से युक्तिसंगत नहीं समझता है, तो उसे ऐसे कारणों को लेखबद्ध करना होगा।     2. प्रसादपर्यन्त का सिद्धांत सर्वोच्च न

किसी राज्य मे संवैधानिक तंत्र की विफलता

   भारत के संविधान के अनुच्छेद 356 में यह व्यवस्था की गई है कि यदि किसी राज्य के राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति को लिखित रुप में प्रतिवेदन पत्र प्राप्त होता है या उसका अन्यथा यह समाधान हो जाए कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है जिसमें कि उस राज्य का संवैधानिक तंत्र विफल हो गया है या राज्य का शासन संविधान के उपबन्धों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता है तो राष्ट्रपति उद्घोषणा करके -- (क) राज्य सरकार के समस्त अथवा कोई कृत्य या राज्य के किसी अन्य निकाय अथवा प्राधिकारी में निहित कोई भी शक्तियां स्वयं ग्रहण कर सकता है। (ख) यह घोषणा कर सकता है कि राज्य विधान पालिका की शक्तियों का प्रयोग स्वयं संसद करेगा। (ग) ऐसे अनुसांगिक एवं प्रासंगिक उपबन्ध बना सकता है ,जो उद्घोषणा के प्रवर्तन के लिए उसे आवश्यक अथवा अभीष्ट लगें। वह राज्य में किसी निकाय अथवा प्राधिकारी से सम्बन्धित प्रावधानों के प्रवर्तन को पूर्णतः अथवा अंशतः निलम्बित भी कर सकता है।      हर उद्घोषणा को संसद के दोनों सदनों के  समक्ष प्रस्तुत करना आवश्यक है और ऐसी उद्घोषणा का प्रवर्तन पूर्वर्ती उद्घोषणा का विखण्डन करने वाली उद्घोषणा को छोड़कर दो माह के बा

भारतीय संविधान में आपात उपबन्ध (Emergency provision in Indiana Constitution)

भारत के संविधान के अनुच्छेद 352 से 360 तक में तीन प्रकार के आपातो की व्यवस्था की गई है। जो निम्न है - 1. राष्ट्र की सुरक्षा को खतरा । 2. किसी राज्य मे संवैधानिक तंत्र की विफलता। 3. वित्तीय आपात। 1. राष्ट्र की सुरक्षा को खतरा - भारत के संविधान के अनुच्छेद 352 में यह व्यवस्था की गई है कि यदि राष्ट्रपति का यह समाधान हो जाए कि ऐसा गम्भीर आपात पैदा हो गया है, जिससे भारत अथवा भारत के किसी भाग की सुरक्षा युद्ध, वाहीय आक्रमण अथवा सशस्त्र विद्रोह के कारण खतरे में पड गई है, तो राष्ट्रपति आपात उद्घोषणा द्वारा इस आशय की घोषणा कर सकता है।      यदि राष्ट्रपति का समाधान हो जाता है उक्त प्रकार का खतरा संनिकट है, तो भी वह आपात की घोषणा कर सकता है।     राष्ट्रपति एक उत्तरवर्ती उद्घोषणा करके किसी पूर्ववर्ती उद्घोषणा का विखण्डन अथवा परिवर्तन कर सकता है।   आपात उद्घोषणा को संसद के दोनों सदनो के समक्ष प्रसतुत करना पड़ता है। यदि संसद अनुमोदित नहीं करती है तो एक माह की समाप्ति पर उद्घोषणा का प्रवर्तन समाप्त हो जाता है।    राष्ट्रपति तब तक कोई भी आपात उद्घोषणा नहीं कर सकता जब तक कि केन्द्रीय मन्त्रिमण्

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