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Showing posts from March 10, 2018

जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते

 इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक निर्णय में कहा है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (डी) के अनुसार, जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते, इसके बजाय इसे शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए। न्यायमूर्ति सैयद आफताफ हुसैन रिजवी ने विमल दुबे और एक अन्य द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482  के अंतर्गत दायर याचिका को स्वीकार कर ये निर्णय दिया। आवेदकों के अधिवक्ता ने मुख्य रूप से तर्क दिया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 323 और 504 के अंतर्गत एक एनसीआर पंजीकृत किया गया था और उसके बाद जांच की गई और आवेदकों के विरुद्ध आरोप पत्र प्रस्तुत किया गया।  यह तर्क दिया गया कि मजिस्ट्रेट ने पुलिस रिपोर्ट को देखे बिना और कानून के प्रावधानों के खिलाफ अपराध का संज्ञान लिया, क्योंकि धारा 2 (डी) सीआरपीसी के अनुसार, यदि जांच के बाद पुलिस रिपोर्ट में असंज्ञेय अपराध का खुलासा होता है, तो यह शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए और जांच अधिकारी/पुलिस अधिकारी को शिकायतकर्ता माना जाएगा और शिकायत मामले की प्रक्रिया का पालन किया जाना है। धारा 2(डी) सीआरपीसी के प्रावध

वैवाहिक उपचार / Marriatal Remedy

     विवाह के पक्षकारों को एक दूसरे के विरुद्ध कुछ वैवाहिक उपचार प्राप्त हैं। जिनमें से एक है ''दामपत्य अधिकारों का पुनःस्थापन'' जो निम्न प्रकार है --- हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 9 के अनुसार --   जबकि पति या पत्नी ने अपने को दूसरे के साहचर्य से किसी युक्तिसंगत प्रतिहेतु  के बिना अलग कर लिया हो तब व्यथित पक्षकार दामपत्य अधिकारोंकेप्रत्यास्थापन के लिए जिला न्यायालय में आवेदन कर सकेगा और न्यायालय ऐसी  अर्जी  में किये  गये कथनो की सत्यता के बारे में तथा इस बात के बारे में कि इसके लिए कोई वैध आधार नहीं है कि आवेदन मंजूर क्यों न कर लिया जाये अथवा समाधान हो जाने पर दामपत्य अधिकारो  के  प्रत्यास्थापन  की  डिक्री प्रदान कर सकेगा।      इस प्रकार दामपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की डिक्री तभी जारी की जा सकती है ,जब ---(1) विवाह के एक पक्षकार ने दूसरे पक्षकार के साथ रहना छोड़ दिया हो, (2) ऐसा रहना बिना युक्तिसंगत कारण के छोड़ा हो, (3) पीडित पक्षकार ने दामपत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना के लिए न्यायालय से याचना की हो, (4) ऐसी याचना से न्यायालय सन्तुष्ट हो, और (5) ऐसी याचना अस्

हिन्दू विवाह की आवश्यक शर्तें / Essential conditions for Hindu Marriage

हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 5 हिन्दू विवाह के लिए निम्नलिखित शर्त निर्धारित करती है ----- (1) एक विवाह -   अधिनियम की धारा 5(1) यह निर्धारित करती है कि विवाह के समय दोनों पक्षकारों में से, न तो वर की कोई जीवित  पत्नी होनी चाहिए और न वधू का कोई जीवित पति होना चाहिए।     परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि विवाह के समय वर वधू कुँवारे हों। वे अविवाहित, विधवा या विधुर और तलाकशुदा हो सकते हैं। द्वितीय विवाह और धर्म परिवर्तन --  धर्म परिवर्तन से विवाह समाप्त नहीं होता बल्कि दूसरे पक्षकार को विवाह समाप्त करने का अधिकार प्राप्त होता है।    बहु विवाह की प्रथा एवं रुढि --- उच्चतम न्यायालय ने डाक्टर सूरजमणि बनाम दुर्गाचरण हंसदा, ए आई आर 2001 में यह अभिनिर्धारण किया कि अनुसूचित जनजाति में प्रथा एवं रीति रिवाज के अन्तर्गत बहुविवाह को मान्यता प्रदान की गई है, तो ऐसी स्थिति में रूढि एवं प्रथा सर्वोच्च होगी। भारत से बाहर सम्पन्न विवाह --- पति के पहले की एक पत्नी थी तथा पहली शादी 1955 से पहले इंग्लैंड में सम्पन्न हुई थी यदि पहले की पत्नी के जीवन काल में पति दूसरा विवाह करता है तो ऐसा विवाह शून्य एवं अ

हिन्दू विधि के स्रोत /Sources of Hindu Law

    हिन्दू विधि के स्रोतों को दो भागों में बांटा जा सकता है ----- प्राचीन एवं आधुनिक,  वे निम्न हैं -----   (क) प्राचीन स्रोत ---    (1) वेद अथवा श्रुति -               वेद अथवा श्रुति हिन्दू विधि के प्राचीन मूल स्रोत हैं। श्रुतियों के अन्तर्गत चार वेद, छः वेदांग ,और ग्यारह उपनिषदों को माना जाता है। ऋग्वेद, यजुर्वेद,  सामवेद और अथर्ववेद ,ये चार वेद हैं जिनमें ऋग्वेद सबसे प्राचीनतम है। छः वेदांगो में - कल्प, व्याकरण, छन्द, शिक्षा, ज्योतिष और निरूक्त हैं।    ग्यारह उपनिषदों में शामिल हैं - ईश, केन, कंठ, प्रश्न, मुण्क, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, छान्दोग्य, ब्रृहृदारण्यक और श्व़ेताश्व़तर।    (2) स्मृति -               स्मृति का अर्थ है जो याद रखा गया हो। स्मृतियों को भी ईश्वर प्रदत्त माना जाता है भले ही वे ईश्वर के वास्तविक शब्दों में नहीं हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि जब ईश्वर ने ऋषियों पर वेद प्रकट किये तो जो बातें ईश्वर के श्रीमुख से निकली अंकित की गई उन्हें वेद कहा गया और जो ऋषियों ने स्मरण के आधार पर लिखी, उन्हें स्मृतियां कहा गया। इन्हें हिन्दू विधि का मेरुदण्ड माना जाता ह

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