जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते

 इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक निर्णय में कहा है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (डी) के अनुसार, जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते, इसके बजाय इसे शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए। न्यायमूर्ति सैयद आफताफ हुसैन रिजवी ने विमल दुबे और एक अन्य द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482  के अंतर्गत दायर याचिका को स्वीकार कर ये निर्णय दिया। आवेदकों के अधिवक्ता ने मुख्य रूप से तर्क दिया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 323 और 504 के अंतर्गत एक एनसीआर पंजीकृत किया गया था और उसके बाद जांच की गई और आवेदकों के विरुद्ध आरोप पत्र प्रस्तुत किया गया।  यह तर्क दिया गया कि मजिस्ट्रेट ने पुलिस रिपोर्ट को देखे बिना और कानून के प्रावधानों के खिलाफ अपराध का संज्ञान लिया, क्योंकि धारा 2 (डी) सीआरपीसी के अनुसार, यदि जांच के बाद पुलिस रिपोर्ट में असंज्ञेय अपराध का खुलासा होता है, तो यह शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए और जांच अधिकारी/पुलिस अधिकारी को शिकायतकर्ता माना जाएगा और शिकायत मामले की प्रक्रिया का पालन किया जाना है। धारा 2(डी) सीआरपीसी के प्रावध

किसी राज्य मे संवैधानिक तंत्र की विफलता

   भारत के संविधान के अनुच्छेद 356 में यह व्यवस्था की गई है कि यदि किसी राज्य के राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति को लिखित रुप में प्रतिवेदन पत्र प्राप्त होता है या उसका अन्यथा यह समाधान हो जाए कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है जिसमें कि उस राज्य का संवैधानिक तंत्र विफल हो गया है या राज्य का शासन संविधान के उपबन्धों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता है तो राष्ट्रपति उद्घोषणा करके -- (क) राज्य सरकार के समस्त अथवा कोई कृत्य या राज्य के किसी अन्य निकाय अथवा प्राधिकारी में निहित कोई भी शक्तियां स्वयं ग्रहण कर सकता है। (ख) यह घोषणा कर सकता है कि राज्य विधान पालिका की शक्तियों का प्रयोग स्वयं संसद करेगा। (ग) ऐसे अनुसांगिक एवं प्रासंगिक उपबन्ध बना सकता है ,जो उद्घोषणा के प्रवर्तन के लिए उसे आवश्यक अथवा अभीष्ट लगें। वह राज्य में किसी निकाय अथवा प्राधिकारी से सम्बन्धित प्रावधानों के प्रवर्तन को पूर्णतः अथवा अंशतः निलम्बित भी कर सकता है।
     हर उद्घोषणा को संसद के दोनों सदनों के  समक्ष प्रस्तुत करना आवश्यक है और ऐसी उद्घोषणा का प्रवर्तन पूर्वर्ती उद्घोषणा का विखण्डन करने वाली उद्घोषणा को छोड़कर दो माह के बाद समाप्त हो जाता है, यदि इसी बीच संसद के दोनों सदनो के संकल्पों द्वारा इसे अनुमोदित नहीं कर दिया जाता है।
  यदि उद्घोषणा जारी करते समय या उसके बाद लोक सभा ऐसी उद्घोषणा को अनुमोदित किये बिना विघटित कर दी जाती है, और यदि राज्य सभा ऐसी उद्घोषणा को अनुमोदित कर देती है, तो सामान्य निर्वाचन के परिणामस्वरूप गठित होने वाली लोक सभा की प्रथम बैठक की तीस दिन की अवधि तक उद्घोषणा प्रवर्तन में रहती है और उसके बाद समाप्त हो जाती है, यदि इस आवधि की समाप्ति के पूर्व ही लोक सभा भी इस पर अपना अनुमोदन प्रदान नहीं कर देती।

   उद्घोषणा के प्रवर्तन की अवधि : उद्घोषणा में प्रवर्तन की अवधि उस अन्तिम तिथि से 6 माह तक होती है, जिस तिथी को संसद के दोनों सदन इसका अनुमोदन प्रदान करने वाले संकल्प पारित करते हैं। एक माह में अवधि छह माह तक बढाई जा सकती है। यदि छह माह की अवधि के अंदर लोक सभा का विघटन हो जाता है, तो उद्घोषणा का प्रवर्तन उस तिथि से एक माह तक बना रहता है, जिस तिथि को पुनः गठित लोक सभा अपनी प्रथम बैठक करती है। तथापि इस नियत समय के भीतर राज्य सभा को इसका अनुमोदन कर देना चाहिए। उद्घोषणा कब तक बनाई रखी जाय इसका निर्णय संसद करेगी।
  किसी राज्य मे उद्घोषणा के प्रवर्तन की अधिकतम अवधि 3 वर्ष है।
  दूसरी संरक्षा यह है कि संसद का कोई भी सदन राज्य मे आपात एक वर्ष के बाद बढाये जाने के लिए अनुमोदन का संकल्प तब तक पारित नहीं कर सकता जब तक --(1) ऐसे संकल्प के पारित होने के समय कोई आपात उद्घोषणा प्रवर्तन में न हो, तथा (2 ) निर्वाचन आयोग यह प्रमाणित न कर दे कि अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत उद्घोषणा के प्रवर्तन की निरन्तरता संकल्प में उल्लखित अवधि के लिए इसलिए आवश्यक है, क्योंकि सम्बन्धित राज्य मे राज्य विधान सभा का सामान्य निर्वाचन कराने में कठिनाइयां हैं ।
  इससे सम्बन्धित दो प्रमुख सु कोर्ट के निर्णय हैं :-

राजस्थान राज्य बनाम भारत संघ 1978 सु कोर्ट।

एस. आर. बोम्मई  बनाम  भारत संघ 1994 सु. कोर्ट।

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