जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते

 इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक निर्णय में कहा है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (डी) के अनुसार, जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते, इसके बजाय इसे शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए। न्यायमूर्ति सैयद आफताफ हुसैन रिजवी ने विमल दुबे और एक अन्य द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482  के अंतर्गत दायर याचिका को स्वीकार कर ये निर्णय दिया। आवेदकों के अधिवक्ता ने मुख्य रूप से तर्क दिया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 323 और 504 के अंतर्गत एक एनसीआर पंजीकृत किया गया था और उसके बाद जांच की गई और आवेदकों के विरुद्ध आरोप पत्र प्रस्तुत किया गया।  यह तर्क दिया गया कि मजिस्ट्रेट ने पुलिस रिपोर्ट को देखे बिना और कानून के प्रावधानों के खिलाफ अपराध का संज्ञान लिया, क्योंकि धारा 2 (डी) सीआरपीसी के अनुसार, यदि जांच के बाद पुलिस रिपोर्ट में असंज्ञेय अपराध का खुलासा होता है, तो यह शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए और जांच अधिकारी/पुलिस अधिकारी को शिकायतकर्ता माना जाएगा और शिकायत मामले की प्रक्रिया का पालन किया जाना है। धारा 2(डी) सीआरपीसी के प्रावध

अवयस्क की संविदा का प्रभाव (Effect of contract with minor)

    भारतीय व्यस्कता अधिनियम की धारा 3 के अनुसार, अवयस्क वह व्यक्ति होता है जो 18 वर्ष से कम आयु का है।

  अवयस्क की संविदा की प्रकृति
        धारा 11 भारतीय संविदा अधिनियम के अनुसार, हर ऐसा व्यक्ति संविदा करने के लिए सक्षम है जो उस विधि के अनुसार जिसके वह अध्यधीन है, प्राप्तवय हो, और जो  स्वस्थ चित हो, और किसी विधि द्वारा जिसके वह अध्यधीन है, संविदा करने से निरार्हित न हो।

  अवयस्क की संविदा आरम्भ से ही शून्य होती या शून्यकरणीय इस पर सदैव से मतभेद रहा है। परन्तु मोहरी बीबी  बनाम  धर्मदास घोष (1903) के वाद में प्रिवी कौंसिल ने इस मतभेद को समाप्त कर दिया और अभिनिश्चित किया कि अवयस्क की संविदा आरम्भ से ही शून्य होती है।
          धर्मदास जो अवयस्क था। उसने कलकत्ता के एक महाजन ब्रहम्दत्त से 10,500 रुपये बन्धक विलेख लिखकर लिए थे। बन्धक विलेख लिखे जाने के समय ब्रहम्दत्त के एजेंट को धर्मदास की अवयस्कता के बारे मे जानकारी मिल गई थी। परन्तु इसके बावजूद विलेख लिखवा लिया गया था। अवयस्क की ओर से उसकी माँ ने वाद किया कि बन्धक विलेख रद्द कर दिया जाये, क्योंकि वह अवयस्क द्वारा निष्पादित किया गया था। वाद के दौरान ब्रहम्दत्त मर गया और उसका स्थान उहकी पत्नी मोहरी बीबी ने प्राप्त कर वाद जारी रखा। अभिनिर्धारित हुआ कि अवयस्क द्वारा की गई संविदा आरम्भ से ही शून्य होती है।

   प्रत्यास्थापन का सिद्धांत
      लाहौर उच्च न्यायालय ने  खानगुल  बनाम  लक्खा सिंह  के वाद में अभिनिश्चित किया था कि प्रत्यवस्थापन का सिद्धांत अवयस्क की संविदा पर लागू होगा।
    परन्तु इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अयोध्या प्रसाद  बनाम  चन्दन लाल अ आई आरा 1937 इला के वाद में लाहौर उच्च न्यायालय के निर्णय को लागू करने से इनकार कर दिया।
   
    अनुसमर्थन
             अवयस्क द्वारा की गई संविदा का अनुसमर्थन नहीं किया जा सकता ।परन्तु वयस्कता में भी कुछ धन प्राप्त करके अवयस्कता के करार का अनुसमर्थन किया गया है तो अवयस्कता में किये गये करार को लागू कराया जा सकता है।

   परन्तु धारा 68 भारतीय संविदा अधिनियम के अनुसार यदि ऐसे व्यक्ति को, जो संविदा करने में असमर्थ है या किसी ऐसे व्यक्ति को जिसका पालन पोषण करने के लिए वह वैध रूप से आबद्ध हो जीवन में उसकी स्थिति के योग्य आवश्यक वस्तुएं किसी अन्य व्यक्ति द्वारा प्रदाय की जाती हैं तो वह अन्य व्यक्ति, ऐसे असमर्थ व्यक्ति की संपत्ति से भरपाई का हकदार है।

Comments

Popular posts from this blog

सप्तपदी के अभाव में विवाह को वैध नहीं माना जा सकता है।

क्या विदेश में रहने वाला व्यक्ति भी अग्रिम जमानत ले सकता है

Kanunigyan :- भरण पोषण का अधिकार :