जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते

 इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक निर्णय में कहा है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (डी) के अनुसार, जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते, इसके बजाय इसे शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए। न्यायमूर्ति सैयद आफताफ हुसैन रिजवी ने विमल दुबे और एक अन्य द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482  के अंतर्गत दायर याचिका को स्वीकार कर ये निर्णय दिया। आवेदकों के अधिवक्ता ने मुख्य रूप से तर्क दिया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 323 और 504 के अंतर्गत एक एनसीआर पंजीकृत किया गया था और उसके बाद जांच की गई और आवेदकों के विरुद्ध आरोप पत्र प्रस्तुत किया गया।  यह तर्क दिया गया कि मजिस्ट्रेट ने पुलिस रिपोर्ट को देखे बिना और कानून के प्रावधानों के खिलाफ अपराध का संज्ञान लिया, क्योंकि धारा 2 (डी) सीआरपीसी के अनुसार, यदि जांच के बाद पुलिस रिपोर्ट में असंज्ञेय अपराध का खुलासा होता है, तो यह शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए और जांच अधिकारी/पुलिस अधिकारी को शिकायतकर्ता माना जाएगा और शिकायत मामले की प्रक्रिया का पालन किया जाना है। धारा 2(डी) सीआरपीसी के प्रावध

प्रोटेस्ट पीटिशन में अपनाई जाने वाली प्रकिया /process followed in protest petition

उच्चतम न्यायलय ने विष्णु कुमार तिवारी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य सु कोर्ट 2019 के वाद में यह व्यवस्था की है कि
प्रोटेस्ट पीटिशन में कौन सी प्रकिया अपनायी जानी चाहिए ?
      न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति के एम जोसैफ की खण्ड पीठ ने यह मत व्यक्त किया कि प्रोटेस्ट पीटिशन को परिवाद के रूप में लेना चाहिए। यदि वह एक परिवाद की आवश्यकताऔं को पूर्ण करता है तो मजिस्ट्रेट  दण्ड प्रकिया संहिता की धारा 200 एवं 202 की पालना कर सकता है। 

    बैंच ने यह भी कहा कि यदि मजिस्ट्रेट प्रोटेस्ट पीटिशन को परिवाद की तरह नहीं लेता तो परिवादी के लिए उपचार होगा कि वह एक नया परिवाद संस्थित करे। और मजिस्ट्रेट से दण्ड संहिता की धारा 200 एवं 202 की पालना करने की अपेक्षा करे। 

     उच्चतम न्यायालय ने इस विषय पर बहुत से निर्णयों का हवाला देते हुए कहा कि प्रोटेस्ट पीटिशन दायर करने का संहिता में कोई प्रावधान नहीं है परन्तु यह व्यवहार में है। 

   प्रोटेस्ट पीटिशन कोन दायर कर सकता है? 
         भगवन्त सिंह वाद ए आई आर 1985 सु कोर्ट 1285 के अनुसार यह अधिकार केवल सूचनादाता को है अन्य किसी को नहीं है। 
    अन्तिम आख्या प्राप्त होने पर मजिस्ट्रेट के समक्ष विकल्प 
             जब पुलिस द्वारा धारा 173(2) दण्ड प्रकिया संहिता के अंतर्गत मजिस्ट्रेट को रिपोर्ट भेजी जाती है तो निम्न दशाएं उत्पन्न होती है। रिपोर्ट किसी व्यक्ति या व्यक्तियों द्वारा किसी अपराध का कारित करना गठित कर सकती है। तब मजिस्ट्रेट 
  (1) उस रिपोर्ट पर संगान लेकर आदेशिका जारी कर सकता है। 
  (2) उस रिपोर्ट से असहमत हो सकता है और प्रकिया समाप्त कर सकता है। 
  (3) धारा 156(3) दण्ड प्रकिया संहिता के अंतर्गत पुलिस को पुनः अन्वेषण करने का आदेश दे सकता है। 
        दूसरी ओर जब पुलिस रिपोर्ट यह दर्शित करती है कि कोई अपराध गठित नहीं होता है तो मजिस्ट्रेट 

   (1) उस रिपोर्ट को स्वीकार कर प्रकिया समाप्त कर सकता है। 
  (2) रिपोर्ट से असहमत हो सकता है और कार्यवाही करने के लिए यदि पर्याप्त सामाग्री है तो उस पर संगान लेकर आदेशिका जारी कर सकता है। 
  (3) या पुनः अन्वेषण का आदेश दे सकता है। 
 स्थिति यह है कि यह सुस्थापित विधि है कि दण्ड प्रकिया संहिता की धारा 173(2) के अंतर्गत रिपोर्ट प्राप्त होने पर भी मजिस्ट्रेट को अधिकार है कि दण्ड प्रकिया संहिता की धारा 190(ख) के अंतर्गत संगान ले सकता है चारिपोर्ट किसी अपराध के गठित होने का खुलासा नहीं करती हो। मजिस्ट्रेट अन्वेषण में परिक्षित साक्षियों के 
साक्षियों के आधार पर संगान ले सकता है। 
  एसी स्थिति में मजिस्ट्रेट धारा 200 एवं 202 के प्रावधानों का अनुसरण करने के लिए बाध्य नहीं है। 

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