जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते

 इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक निर्णय में कहा है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (डी) के अनुसार, जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते, इसके बजाय इसे शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए। न्यायमूर्ति सैयद आफताफ हुसैन रिजवी ने विमल दुबे और एक अन्य द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482  के अंतर्गत दायर याचिका को स्वीकार कर ये निर्णय दिया। आवेदकों के अधिवक्ता ने मुख्य रूप से तर्क दिया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 323 और 504 के अंतर्गत एक एनसीआर पंजीकृत किया गया था और उसके बाद जांच की गई और आवेदकों के विरुद्ध आरोप पत्र प्रस्तुत किया गया।  यह तर्क दिया गया कि मजिस्ट्रेट ने पुलिस रिपोर्ट को देखे बिना और कानून के प्रावधानों के खिलाफ अपराध का संज्ञान लिया, क्योंकि धारा 2 (डी) सीआरपीसी के अनुसार, यदि जांच के बाद पुलिस रिपोर्ट में असंज्ञेय अपराध का खुलासा होता है, तो यह शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए और जांच अधिकारी/पुलिस अधिकारी को शिकायतकर्ता माना जाएगा और शिकायत मामले की प्रक्रिया का पालन किया जाना है। धारा 2(डी) सीआरपीसी के प्रावध

जाली जाति प्रमाण पत्र के आधार पर प्राप्त नियुक्ति को रद्द करना उचित है

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी द्वारा एक महिला सरकारी शिक्षक की सेवा समाप्त करने के आदेश को बरकरार रखा, जिसने अपनी नियुक्ति के लिए जाली जाति प्रमाण पत्र  जमा किया था। यह देखते हुए कि अपने आवेदन में, एक महिला सरकारी शिक्षक ने अपनी जाति को 'अंसारी' बताया था, लेकिन उसने नियुक्ति हासिल करते समय अनुसूचित जाति वर्ग से संबंधित जाति प्रमाण पत्र जमा कर दिया था, न्यायमूर्ति दिनेश कुमार सिंह की खंडपीठ ने उसके बर्खास्तगी आदेश को बरकरार रखा।
 क्या था पूरा मामला 
          याचिकाकर्ता  को नवंबर 1999 में जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी, हरदोई द्वारा इस शर्त के साथ नियुक्ति दी गई थी कि भविष्य में यदि याचिकाकर्ता द्वारा दी गई कोई जानकारी या उसके द्वारा प्रस्तुत कोई भी दस्तावेज गलत या जाली पाया जाएगा, तो उसकी सेवाएं तत्काल समाप्त किये जाने योग्य होगी। याचिकाकर्ता ने अनुसूचित जाति वर्ग से संबंधित अपना जाति प्रमाण पत्र प्रस्तुत किया था। तत्पश्चात, हरदोई के जिला मजिस्ट्रेट के समक्ष एक शिकायत की हुईं जिसमें कथन था कि याचिकाकर्ता एक मुसलमान है और उसकी सेवा पुस्तिका में, उसके धर्म का उल्लेख 'इस्लाम' के रूप में किया गया था और फिर भी चयन और नियुक्ति के समय उसने जो जाति प्रमाण पत्र जमा किया था, इसके अनुसार वह अनुसूचित जाति वर्ग से संबंधित है।
 
    प्रथम दृष्टया यह देखने के साथ कि याची ने जाली जाति प्रमाण पत्र जमा करके धोखाधड़ी करके नियुक्ति प्राप्त की थी। स्पष्टीकरण के लिए एक नोटिस जारी किया गया। हालांकि, याचिकाकर्ता ने आरोपों के लिए कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया और इस प्रकार, उसकी सेवाएं समाप्त कर दी गई। उसी को चुनौती देते हुए, उसने यह कहते हुए  उच्च न्यायालय में याचिका दायर की कि उसने नौकरी हासिल करने के लिए कभी भी जाति प्रमाण पत्र जमा नहीं किया था।
 न्यायालय की टिप्पणियां 
       न्यायालय ने मूल रिकॉर्ड को देखते हुए पाया कि याचिकाकर्ता ने वास्तव में 1995 में तहसीलदार, सदर, लखनऊ के कार्यालय द्वारा कथित रूप से जारी जाति प्रमाण पत्र प्रस्तुत किया था, जिसमें कहा गया था कि याचिकाकर्ता अनुसूचित जाति वर्ग से संबंधित है। कोर्ट ने कहा कि यह स्पष्ट है कि उसने अपने आवेदन में अपनी जाति को 'अंसारी' बताया है, लेकिन उसने अनुसूचित जाति वर्ग से संबंधित जाति प्रमाण पत्र जमा किया था।
         इस प्रकार, यह कहते हुए कि धोखाधड़ी सहायक शिक्षक के पद पर याचिकाकर्ता की नियुक्ति को समाप्त कर देती है और इसे शुरू से ही शून्य मानती है, न्यायालय ने कहा कि  विरोधी पक्षों के पक्ष से यह स्पष्ट है  कि याचिकाकर्ता ने फर्जीवाड़ा कर सहायक शिक्षक के पद पर नियुक्ति प्राप्त की तथा अनुसूचित जाति वर्ग से संबंधित जाली  जाति प्रमाण पत्र प्रस्तुत किया। न्यायालय नेजिला बेसिक शिक्षा अधिकारी, हरदोई द्वारा पारित आक्षेपित आदेश में कोई त्रुटि नहीं पाई और उच्च न्यायालय ने रिट याचिका खारिज कर दी।

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