जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते

 इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक निर्णय में कहा है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (डी) के अनुसार, जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते, इसके बजाय इसे शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए। न्यायमूर्ति सैयद आफताफ हुसैन रिजवी ने विमल दुबे और एक अन्य द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482  के अंतर्गत दायर याचिका को स्वीकार कर ये निर्णय दिया। आवेदकों के अधिवक्ता ने मुख्य रूप से तर्क दिया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 323 और 504 के अंतर्गत एक एनसीआर पंजीकृत किया गया था और उसके बाद जांच की गई और आवेदकों के विरुद्ध आरोप पत्र प्रस्तुत किया गया।  यह तर्क दिया गया कि मजिस्ट्रेट ने पुलिस रिपोर्ट को देखे बिना और कानून के प्रावधानों के खिलाफ अपराध का संज्ञान लिया, क्योंकि धारा 2 (डी) सीआरपीसी के अनुसार, यदि जांच के बाद पुलिस रिपोर्ट में असंज्ञेय अपराध का खुलासा होता है, तो यह शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए और जांच अधिकारी/पुलिस अधिकारी को शिकायतकर्ता माना जाएगा और शिकायत मामले की प्रक्रिया का पालन किया जाना है। धारा 2(डी) सीआरपीसी के प्रावध

क्या उत्तर प्रदेश में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 506 के अंतर्गत अपराध संज्ञेय और अजमानतीय ह

 इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने हाल ही में निर्णय दिया है कि उत्तर प्रदेश राज्य में भारतीय दण्ड संहिता की धारा506 के अंतर्गत आपराधिक धमकी के लिए सजा का अपराध एक संज्ञेय अपराध है। 


जस्टिस सुभाष विद्यार्थी की बैंच ने इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए उत्तर प्रदेश गजट दिनांक 31 जुलाई 1989 में प्रकाशित एक अधिसूचना को उल्लेखित किया है। इसमें उत्तर प्रदेश के तत्कालीन माननीय राज्यपाल द्वारा अधिसूचना जारी की गई थी कि उत्तर प्रदेश में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 506 के अंतर्गत कोई भी अपराध संज्ञेय और अजमानतीय होगा।

 न्यायालय ने यह भी कहा मेटा सेवक उपाध्याय बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, 1995 सीजे इलाहाबाद  के वाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की एक पूर्ण पीठ ने उक्त अधिसूचना को क़ायम रखते हुए निर्णय दिया था और इस निर्णय को एरेस रोड्रिग्स बनाम विश्वजीत पी. राणे (2017) 11 एससीसी 62 में उच्चतम न्यायालय ने भी अनुमोदित किया था।

क्या है पूरा मामला 

 वर्तमान मामले में पीड़ित ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) के अंतर्गत एक आवेदन संस्थित किया जिसमें आरोप लगाया था कि याची राकेश कुमार शुक्ला ने उसकी मृत्यु करने के आशय से उस पर गोली चलाई थी और जब क्षेत्र के कई लोग वहां इकट्ठा हो गए, तो वह उसको जान से मारने की धमकी देकर चला गया। 

 मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, बांदा के आदेश पर प्राथम सूचना रिपोर्ट दर्ज  हुई।थाना पुलिस द्वारा अन्वेषण करने के बाद 2007 में याची के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 504 और 506 के अंतर्गत न्यायालय ने आरोप पत्र दाखिल किया और वह  वर्तमान में बांदा मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के न्यायालय में विचाराधीन है। इस आरोप पत्र को चुनौती देते हुए याची ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की482  के अंतर्गत उच्च न्यायालय वर्तमान याचिका दायर की है। याचिकाकर्ता के अधिवक्ता ने तर्क दिया कि याची के विरुद्ध केवल भारतीय दण्ड संहिता की धारा 504 के अंतर्गत अपराध बनता है धारा 506 को याची के विरुद्ध बनाया गया पाया गया, जो  असंज्ञेय अपराध हैं। अधिवक्ता ने यह तर्क भी दिया  कि याची के विरुद्ध मामला केवल परिवाद मामले के रूप में आगे बढ़ सकता है। यह तर्क दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (डी) के अनुसार आवेदक ने दिया  था, जिसमें उल्लेखित है कि किसी मामले में एक पुलिस अधिकारी द्वारा दी गई  रिपोर्ट जब जांच के बाद एक असंज्ञेय अपराध पाया जाता है तो ऐसी रिपोर्ट परिवाद मानी जाती है और अन्वेषण अधिकारी परिवादी माना जाएगा। 


न्यायालय की टिप्पणियां 

न्यायालय ने आरंभ में नोट किया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की प्रथम अनुसूची में धारा 506 को एक असंज्ञेय अपराध के रूप में वर्णित किया है। यद्यपि उत्तर प्रदेश सरकार ने 31 जुलाई, 1989 की एक अधिसूचना द्वारा उत्तर प्रदेश गजट ने धारा 506 को संज्ञेय और अजमानतीय बना दिया। 

न्यायालय ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 155 (4) का उल्लेख किया जिसमें उल्लेखित है कि जहां एक मामला दो या दो से अधिक अपराधों से संबंधित है, जिनमें से कम से कम एक संज्ञेय है, तो मामले को संज्ञेय मामला माना जाएगा, भले ही दूसरा अपराध असंज्ञेय हैं। न्यायालय ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 155 (4) के उपबंध को तथ्यों के वर्तमान मामले पर लागू करते हुए निष्कर्ष निकाला कि याची पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 504 और 506 के अंतर्गत अपराध का आरोप लगाया गया है, जिनमें से एक, अर्थात धारा 506 के अंतर्गत अपराध है जो एक संज्ञेय अपराध है। इसलिए मामले को संज्ञेय माना जाना चाहिए और दोनों अपराधों के लिए संज्ञेय अपराधों के रूप में विचारण के लिए निर्धारित तरीके विचारण किया जाय। और याचिका को निरस्त कर दिया।

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