जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते

 इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक निर्णय में कहा है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (डी) के अनुसार, जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते, इसके बजाय इसे शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए। न्यायमूर्ति सैयद आफताफ हुसैन रिजवी ने विमल दुबे और एक अन्य द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482  के अंतर्गत दायर याचिका को स्वीकार कर ये निर्णय दिया। आवेदकों के अधिवक्ता ने मुख्य रूप से तर्क दिया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 323 और 504 के अंतर्गत एक एनसीआर पंजीकृत किया गया था और उसके बाद जांच की गई और आवेदकों के विरुद्ध आरोप पत्र प्रस्तुत किया गया।  यह तर्क दिया गया कि मजिस्ट्रेट ने पुलिस रिपोर्ट को देखे बिना और कानून के प्रावधानों के खिलाफ अपराध का संज्ञान लिया, क्योंकि धारा 2 (डी) सीआरपीसी के अनुसार, यदि जांच के बाद पुलिस रिपोर्ट में असंज्ञेय अपराध का खुलासा होता है, तो यह शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए और जांच अधिकारी/पुलिस अधिकारी को शिकायतकर्ता माना जाएगा और शिकायत मामले की प्रक्रिया का पालन किया जाना है। धारा 2(डी) सीआरपीसी के प्रावध

क्या उच्च न्यायालय द्वारा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 के अंतर्गत अपराधिक कार्यवाही को रद्द किया जा सकता है

 केवल भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 का प्राथमिकी में होना और उसके अंतर्गत आरोप निर्धारित होना, कार्यवाही को रद्द न करने का आधार नहीं है।

न्यायमूर्ति सुभाष विद्यार्थी ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की  धारा 482 के अंतर्गत संस्थित एक याचिका में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 147, 148, 149, 323, 504, 506, 427 और 307  के अंतर्गत दर्ज पूरी अपराधी कार्यवाही और तलवी आदेश को रद्द करने का निर्णय समझौता के आधार पर दिया है। 

दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अंतर्गत दायर याचिका में उच्च न्यायालय के समक्ष तर्क दिया  गया कि, बड़ों और रिश्तेदारों के हस्तक्षेप के कारण, पक्षकारों में समझौता हो गया है  और अब उनके मध्य कोई विवाद शैष नहीं है, और परिवादी नहीं चाहते कि आवेदकों के विरुद्ध कोई कार्रवाई की जाए। 

न्यायालय का विश्लेषण और निर्णय

न्यायालय ने नरिंदर सिंह और अन्य बनाम पंजाब राज्य और अन्य (2014) 6 SCC 466 मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय और बाद में एमपी बनाम लक्ष्मी नारायण (2019) 5 SCC 688 में उच्चतम न्यायालय के फैसले का हवाला दिया।  लक्ष्मी नारायण मामले में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि धारा 307 आईपीसी के अंतर्गत अपराध और शस्त्र अधिनियम के अंतर्गत अपराध, जघन्य और गंभीर अपराधों की श्रेणी में आते हैं, ऐसे अपराधों को उच्च न्यायालय द्वारा संहिता की धारा 482 के अंतर्गत शक्तियों का प्रयोग करके तब तक रद्द नहीं किया जा सकता है, जब तक कि पक्षकारों ने अपने पूरे विवाद को आपस में हल नहीं किया है। 

उक्त मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा था कि उच्च न्यायालय अपने निर्णय को केवल प्रथम सूचना रिपोर्ट में धारा 307 आईपीसी के उल्लेख या इसके अंतर्गत आरोप निर्धारित किए जाने पर आधारित नहीं करेगा। 

उच्च न्यायालय ने कहा कि किसी भी घायल व्यक्ति के शरीर के किसी भी महत्वपूर्ण भाग पर कोई चोट होने की सूचना नहीं है। 

मामले के असामान्य तथ्यों और परिस्थितियों को देखते हुए, उच्च न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि पक्षकारों द्वारा समझौता करने के बाद भी कार्यवाही जारी रखने से केवल आवेदकों का उत्पीड़न होगा, जिसके परिणामस्वरूप न्याय की विफलता होगी। इसलिए अपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया।

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