न्यायिक पृथक्करण /Judicial Separation
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वैसे तो पति और पत्नी दोनों का ही यह पवित्र कर्तव्य है कि वह एक दूसरे को साहचर्य प्रदान करे। परन्तु कभी कभी ऐसी परिस्थितियाँ पैदा हो जाती हैं जब पति पत्नी का एक साथ रहना सम्भव नहीं रह जाता। हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 10 ऐसी परिस्थिति में न्यायिक पृथक्करण का उपबन्ध करती है। जिसके अनुसार निम्नलिखित आधारों में से किसी आधार पर पति पत्नी कोई भी न्यायिक पृथक्करण की याचिका न्यायालय में प्रस्तुत कर सकते हैं --------
(1) जारता -- जब किसी पक्षकार ने पति अथवा पत्नी के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति से लैंगिक संभोग किया हो।
(2) क्रूरता -- जब याची के साथ दूसरे पक्षकार ने क्रूरता का व्यवहार किया हो।
(3) अभित्यजन -- जब दूसरे पक्षकार ने याचिका किये जाने के ठीक पहले कम से कम दो वर्ष से लगातार अभित्यजन किया हो।
(4) धर्म परिवर्तन -- जब दूसरा पक्षकार धर्म परिवर्तन के कारण हिन्दू न रह गया हो ।
(5) विकृतचित्ता -- जब दूसरा पक्षकार विकृतचित्त रहा हो जिस कारण आवेदक प्रत्यर्थी के साथ युक्तियुक्त रूप से नहीं रह सकता।
(6) कोढ़ -- जब याचिका प्रस्तुत किये जाने के ठीक एक वर्ष पूर्व से दूसरा पक्षकार उग्र और असाध्य कुष्ठ रोग से पीडित रहा हो।
(7) संचारी रतिजन्य रोग -- जब दूसरा पक्षकार इस तरह के रततिजन्य रोग से पीडित रहा हो जो सम्पर्क से दूसरे को भी हो सकता है।
(8) सन्यासी होना -- जब दूसरे पक्षकार ने किसी धार्मिक पंथ के अनुसार सन्यास ग्रहण कर लिया हो।
(9) सात वर्ष से लापता -- जब विवाह का दूसरा पक्षकार सात वर्ष या उससे अधिक समय से उन लोगों द्वारा जीवित न सुना गया हो जिन लोगों द्वारा यदि वह जीवित होता तो सुना जाता।
वे आधार जिन पर केवल पत्नी को याचिका प्रस्तुत करने का अधिकार है --
(1) पति द्वारा दूसरा विवाह करने पर ।
(2) पति के बलात्कार या अप्राकृतिक मैथुन के दौषी होने पर।
(3) पत्नी के पक्ष में भरण पोषण की डिक्री पारित होने पर।
(4) यौवनावस्था का विकल्प -- जब पत्नी का विवाह 15 वर्ष की आयु के पूर्व हुआ हो और उसने 15 वर्ष के बाद और 18 वर्ष की आयु पुरी होने के पूर्व विवाह को निराकृत कर दिया हो।
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