जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते

 इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक निर्णय में कहा है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (डी) के अनुसार, जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते, इसके बजाय इसे शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए। न्यायमूर्ति सैयद आफताफ हुसैन रिजवी ने विमल दुबे और एक अन्य द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482  के अंतर्गत दायर याचिका को स्वीकार कर ये निर्णय दिया। आवेदकों के अधिवक्ता ने मुख्य रूप से तर्क दिया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 323 और 504 के अंतर्गत एक एनसीआर पंजीकृत किया गया था और उसके बाद जांच की गई और आवेदकों के विरुद्ध आरोप पत्र प्रस्तुत किया गया।  यह तर्क दिया गया कि मजिस्ट्रेट ने पुलिस रिपोर्ट को देखे बिना और कानून के प्रावधानों के खिलाफ अपराध का संज्ञान लिया, क्योंकि धारा 2 (डी) सीआरपीसी के अनुसार, यदि जांच के बाद पुलिस रिपोर्ट में असंज्ञेय अपराध का खुलासा होता है, तो यह शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए और जांच अधिकारी/पुलिस अधिकारी को शिकायतकर्ता माना जाएगा और शिकायत मामले की प्रक्रिया का पालन किया जाना है। धारा 2(डी) सीआरपीसी के प्रावध

हिन्दू विधि के स्रोत /Sources of Hindu Law

    हिन्दू विधि के स्रोतों को दो भागों में बांटा जा सकता है ----- प्राचीन एवं आधुनिक,  वे निम्न हैं -----

  (क) प्राचीन स्रोत ---
   (1) वेद अथवा श्रुति -

              वेद अथवा श्रुति हिन्दू विधि के प्राचीन मूल स्रोत हैं। श्रुतियों के अन्तर्गत चार वेद, छः वेदांग ,और ग्यारह उपनिषदों को माना जाता है। ऋग्वेद, यजुर्वेद,  सामवेद और अथर्ववेद ,ये चार वेद हैं जिनमें ऋग्वेद सबसे प्राचीनतम है। छः वेदांगो में - कल्प, व्याकरण, छन्द, शिक्षा, ज्योतिष और निरूक्त हैं।    ग्यारह उपनिषदों में शामिल हैं - ईश, केन, कंठ, प्रश्न, मुण्क, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, छान्दोग्य, ब्रृहृदारण्यक और श्व़ेताश्व़तर।

   (2) स्मृति -
              स्मृति का अर्थ है जो याद रखा गया हो।
स्मृतियों को भी ईश्वर प्रदत्त माना जाता है भले ही वे ईश्वर के वास्तविक शब्दों में नहीं हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि जब ईश्वर ने ऋषियों पर वेद प्रकट किये तो जो बातें ईश्वर के श्रीमुख से निकली अंकित की गई उन्हें वेद कहा गया और जो ऋषियों ने स्मरण के आधार पर लिखी, उन्हें स्मृतियां कहा गया। इन्हें हिन्दू विधि का मेरुदण्ड माना जाता है।

   (3) भाष्य एवं निबंध -
            भाष्य वे हैं जिनमें किसी विशेष स्मृति की टीका की गई है और निबंध वे हैं जिसमें किसी विशेष मामले पर अनैक स्मृतियों एवं भाष्यों के पाठों का उदाहरण प्रस्तुत कर उसके बारे मे विधि को स्पष्ट किया गया है।
  (4) रुढियां -
           रुढियां प्राचीन काल से ही हिन्दू विधि का स्रोत मानी जाती हैं। रुढियां तीन प्रकार की होती हैं ---(1) स्थानीय रूढि - जो किसी विशेष स्थान में लागू होती हैं।
  (2) वर्गीय रूढि - जो किसी जाति या वर्ग विशेष पर लागू होती हैं।  (3) पारिवारिक रुढि - जो किसी परिवार या कुटुम्ब पर लागू होती हैं।

   (ख)   आधुनिक स्रोत ----- (1) विधायन --    विधायन हिन्दू विधि का आधुनिक एवं महत्वपूर्ण स्रोत है। संसद अथवा विधानमंडल द्वारा पारित विधि को विधायन कहते हैं। जिनमें निम्नलिखित हैं --
(1) हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम, 1856 ।
(2) बाल विवाह निषेध अधिनियम, 1929।
(3) विशेष विवाद अधिनियम, 1954।
(4) हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955।
(5) हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956।
(6) हिन्द अवयस्कता एवं संरक्षकता अधिनियम, 1956।
(7) हिन्दू दत्तक ग्रहण एवं भरण पोषण अधिनियम, 1956।

    (2) न्यायिक निर्णय --   न्यायिक निर्णय हिन्दू विधि के आधुनिक स्रोत हैं। भारत में उच्च्तर न्यायालयों के निर्णय निम्नतर न्यायालयों पर लागू होते हैं।
  जब किसी न्यायालय के समक्ष हिन्दू विधि से सम्बन्धित मामला आता है तो यदि उस मामले पर सुप्रीम कोर्ट या किसी अन्य उच्च्तर न्यायालय द्वारा निर्णय पहले दिया जा चुका है तो न्यायालय उच्च्तर न्यायालय के निर्णय के आधार पर मामले को निर्णीत करता है। इस तरह वह निर्णय हिन्दू विधि का स्रोत बन जाता है।
  
  (3) न्याय, साम्य एवं सदविवेक -- कभी -कभी न्यायालय के समक्ष ऐसा मामला आ जाता है जिस पर न तो कोई कानूनी प्राविधान होता है और न ही किसी न्यायालय का निर्णय। ऐसी स्थिति में न्यायालय को उस मामले पर निर्णय साम्य, न्याय एवं सदविवेक के आधार पर करना पड़ता है। धीरे धीरे यह नियम के रुप में बन जाता है।

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