जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते

 इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक निर्णय में कहा है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (डी) के अनुसार, जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते, इसके बजाय इसे शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए। न्यायमूर्ति सैयद आफताफ हुसैन रिजवी ने विमल दुबे और एक अन्य द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482  के अंतर्गत दायर याचिका को स्वीकार कर ये निर्णय दिया। आवेदकों के अधिवक्ता ने मुख्य रूप से तर्क दिया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 323 और 504 के अंतर्गत एक एनसीआर पंजीकृत किया गया था और उसके बाद जांच की गई और आवेदकों के विरुद्ध आरोप पत्र प्रस्तुत किया गया।  यह तर्क दिया गया कि मजिस्ट्रेट ने पुलिस रिपोर्ट को देखे बिना और कानून के प्रावधानों के खिलाफ अपराध का संज्ञान लिया, क्योंकि धारा 2 (डी) सीआरपीसी के अनुसार, यदि जांच के बाद पुलिस रिपोर्ट में असंज्ञेय अपराध का खुलासा होता है, तो यह शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए और जांच अधिकारी/पुलिस अधिकारी को शिकायतकर्ता माना जाएगा और शिकायत मामले की प्रक्रिया का पालन किया जाना है। धारा 2(डी) सीआरपीसी के प्रावध

क्या पुलिस आई टी एक्ट की धारा 66ए के अंतर्गत रिपोर्ट दर्ज कर सकती हैं और न्यायालय आरोप पत्र का संज्ञान ले सकते हैं। can police register the FIR and court take cognizance under section 66A of IT act.

धारा 66ए आईटी एक्ट पुलिस एफआईआर दर्ज नहीं कर सकती और न्यायालय आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने डीजीपी, यूपी की ज़िला न्यायालयों को निर्देश दिया

   इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सोमवार को उत्तर प्रदेश के सभी जिला न्यायालयों और पुलिस महानिदेशक को निर्देश दिया कि आईटी अधिनियम, 2000 की धारा 66 ए के तहत कोई एफआईआर दर्ज ना की जाए और उक्त धारा के तहत दायर किए गए आरोप पत्र का कोई भी अदालत संज्ञान न ले।
   जस्टिस राजेश सिंह चौहान की खंडपीठ ने यह निर्देश जारी किया। उच्च न्यायालय ने यह नोट किया था कि आईटी अधिनियम की धारा 66ए को श्रेया सिंघल बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2015) 5 एससीसी 1 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने पहले ही रद्द कर दिया है।

          उच्च न्यायालय ने यह निर्णय हर्ष कदम की याचिका पर सुनवाई कर दिया है, जिसमें आईटी अधिनियम, 2008 की धारा 66 ए के तहत यूपी पुलिस द्वारा प्रस्तुत आरोप पत्र और विशेष मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, लखनऊ द्वारा जारी समन आदेश को चुनौती दी गई थी।
       याचिकाकर्ता के अधिवक्ता द्वारा यह तर्क दिया गया था कि आक्षेपित एफआईआर गलत है क्योंकि याचिकाकर्ता ने एफआईआर में कोई कृत्य नहीं किया, इसलिए, आईटी अधिनियम की धारा 66 ए के तहत दायर आरोप पत्र स्पष्ट रूप से अनुचित है और अनावश्यक है।

           राज्य की ओर से पेश एजीए ने प्रस्तुत किया कि आईटी अधिनियम की धारा 66 ए की वैधानिकता सुप्रीम कोर्ट ने समाप्त कर दिया है। श्रेया सिंघल बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2015) 5 एससीसी 1 में सुप्रीम कोर्ट ने उक्त धारा को संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) का उल्लंघन मानते हुए रद्द कर दिया।
इसे देखते हुए न्यायालय ने कहा

     जब आईटी अधिनियम, 2008 की धारा 66ए के तहत एफआईआर दर्ज नहीं की जा सकती थी क्योंकि कानून के उक्त प्रावधान को सुप्रीम कोर्ट ने 24.03.2015 को रद्द कर दिया है, फिर कैसे आरोप पत्र दायर किया गया है और समन आदेश जारी किया गया है?

        इसलिए, जांच अधिकारी द्वारा आईटी अधिनियम, 2008 की धारा 66ए के तहत चार्जशीट दायर करने वाले और नीचली अदालत द्वारा बिना जांच के उस चार्जशीट का संज्ञान लेने वाले मामले को न्यायिक मस्तिष्क का का प्रयोग नहीं करने का स्पष्ट उदाहरण बताते हुए अदालत ने आरोप पत्र और समन आदेश को रद्द कर दिया।

केस - हर्ष कदम @ हितेंद्र कुमार बनाम यूपी प्र‌िंस‌िपल सेक्रेटरी होम के जरिए और अन्‍य

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