जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते

 इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक निर्णय में कहा है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (डी) के अनुसार, जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते, इसके बजाय इसे शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए। न्यायमूर्ति सैयद आफताफ हुसैन रिजवी ने विमल दुबे और एक अन्य द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482  के अंतर्गत दायर याचिका को स्वीकार कर ये निर्णय दिया। आवेदकों के अधिवक्ता ने मुख्य रूप से तर्क दिया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 323 और 504 के अंतर्गत एक एनसीआर पंजीकृत किया गया था और उसके बाद जांच की गई और आवेदकों के विरुद्ध आरोप पत्र प्रस्तुत किया गया।  यह तर्क दिया गया कि मजिस्ट्रेट ने पुलिस रिपोर्ट को देखे बिना और कानून के प्रावधानों के खिलाफ अपराध का संज्ञान लिया, क्योंकि धारा 2 (डी) सीआरपीसी के अनुसार, यदि जांच के बाद पुलिस रिपोर्ट में असंज्ञेय अपराध का खुलासा होता है, तो यह शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए और जांच अधिकारी/पुलिस अधिकारी को शिकायतकर्ता माना जाएगा और शिकायत मामले की प्रक्रिया का पालन किया जाना है। धारा 2(डी) सीआरपीसी के प्रावध

क्या पुलिस सात वर्ष तक सजा के मामले मे मुकदमा दर्ज होते ही गिरफ्तार कर सकती है। can police arrest on registration of case in seven years imprisonment cases

लाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक मामले में यह निर्णय दिया है कि जब तक पुलिस जांच अधिकारी इस बात से संतुष्ट नहीं होते कि किसी मामले के आरोपी की गिरफ्तारी आवश्यक है, तब तक उसकी गिरफ्तारी न की जाए।

         न्यायालय ने कहा कि पुलिस मुकदमा दर्ज होते ही आरोपी की सामान्य तरीके से गिरफ्तारी न करे। किसी भी व्यक्ति की गिरफ्तारी तभी की जाए, जब मामला सीआरपीसी की धारा 41ए के मानकों पर खरा उतरता हो।

    न्यायालय ने कहा कि पुलिस अधिकारी गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के सामने पेश करने से पूर्व उसकी गिरफ्तारी को लेकर एक चेक लिस्ट तैयार करें और उसमें गिरफ्तारी के कारण का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया जाए। पुलिस अधिकारी को यह स्पष्ट रूप से कथन करना होगा कि मामले में अभियुक्त की गिरफ्तारी क्यों आवश्यक है। साथ ही मजिस्ट्रेट पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट का अवलोकन करें और उस पर अपनी सन्तुष्ट होने के बाद ही गिरफ्तारी के आदेश को आगे बढ़ाएं।

     यह आदेश न्यायमूर्ति डॉ के जे ठाकर एवं न्यायमूर्ति गौतम चौधरी की खंडपीठ ने  विमल कुमार एवं तीन अन्य की याचिका पर सुनवाई करते हुए दिया है। न्यायालय ने यह आदेश सात साल से कम कारावास वाले अपराधों में लगातार पुलिस द्वारा की जा रही गिरफ्तारियों को देखते हुए दिया है। साथ ही डीजीपी को इस आदेश का जिम्मेदारी के साथ अनुपालन कराने का निर्देश दिया है। कोर्ट ने कहा कि हमें यह कहते हुए आश्चर्य हो रहा है कि सात साल से कम सजा या अधिकतम सात वर्ष तक सजा के मामलों में गिरफ्तारी के खिलाफ लगातार याचिकाएं दाखिल हो रही हैं। जबकि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 41ए के प्रावधान इसीलिए लाए गए हैं कि जो लोग गंभीर अपराध के आरोपी नहीं हैं और जिनकी गिरफ्तारी आवश्यक नहीं है उन्हें गिरफ्तारी का सामना न करना पड़े। लेकिन अफसोस है कि यह प्रावधान अपना उद्देश्य पूरा नहीं कर पा रहा है।

      न्यायालय ने कहा कि मुकदमा दर्ज होने के दो सप्ताह के भीतर अभियुक्त को सीआरपीसी की धारा 41ए के अंतर्गत नोटिस प्राप्त कराया जाए। यह अवधि जिले के पुलिस अधीक्षक द्वारा कारण दर्ज करते हुए बढ़ाई भी जा सकती है । कोर्ट ने कहा कि पुलिस अधिकारी इन निर्देशों का सभी मुकदमों की विवेचना में पालन करेंगे। न्यायालय ने कहा कि हम पुलिस अधिकारियों का ध्यान उच्चतम न्यायालय के एक्शन फोर मानव अधिकार तथा आनंद तिवारी और अमरेश कुमार केस में दिए निर्देशों की ओर दिलाना चाहते हैं जिनमें सर्वोच्च अदालत ने कहा है कि पुलिस अधिकारी व्यक्तिगत स्वतंत्रता व सामाजिक न्याय के बीच संतुलन कायम करें। कोर्ट ने कहा कि पुलिस अब भी सात वर्ष से कम सजा वाले मुकदमों में आरोपियों की रुटीन तरीके से गिरफ्तारी कर रही है, जो दण्ड प्रक्रिया संहिता के संशोधित प्रावधानों के विपरीत है। मामले के तथ्यों के अनुसार विमल कुमार के खिलाफ एटा कोतवाली में दहेज उत्पीड़न व दहेज प्रतिषेध अधिनियम की धाराओं में मुकदमा दर्ज कराया गया। उस पर आरोप है कि शादी तय होने के बाद वर पक्ष की ओर से दहेज में क्रेटा कार की मांग की गई और कार न देने पर शादी तोड़ देने की धमकी दी गई जबकि याची का कहना था की वधू पक्ष ने सगाई के बाद उस पर पैसे देने के लिए दबाव बनाया और कहा कि यदि पैसा नहीं दिया जाता है तो उसे फर्जी मुकदमे में फंसा दिया जाएगा। कोर्ट ने कहा कि इस मामले में विवेचना जारी है और याची यदि अधीनस्थ न्यायालय में जमानत या अग्रिम जमानत याचिका दाखिल करता है तो न्यायालय उस पर नियमानुसार निर्णय लें। 

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