जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते

 इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक निर्णय में कहा है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (डी) के अनुसार, जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते, इसके बजाय इसे शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए। न्यायमूर्ति सैयद आफताफ हुसैन रिजवी ने विमल दुबे और एक अन्य द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482  के अंतर्गत दायर याचिका को स्वीकार कर ये निर्णय दिया। आवेदकों के अधिवक्ता ने मुख्य रूप से तर्क दिया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 323 और 504 के अंतर्गत एक एनसीआर पंजीकृत किया गया था और उसके बाद जांच की गई और आवेदकों के विरुद्ध आरोप पत्र प्रस्तुत किया गया।  यह तर्क दिया गया कि मजिस्ट्रेट ने पुलिस रिपोर्ट को देखे बिना और कानून के प्रावधानों के खिलाफ अपराध का संज्ञान लिया, क्योंकि धारा 2 (डी) सीआरपीसी के अनुसार, यदि जांच के बाद पुलिस रिपोर्ट में असंज्ञेय अपराध का खुलासा होता है, तो यह शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए और जांच अधिकारी/पुलिस अधिकारी को शिकायतकर्ता माना जाएगा और शिकायत मामले की प्रक्रिया का पालन किया जाना है। धारा 2(डी) सीआरपीसी के प्रावध

क्या परिसीमा अधिनियम,1963 की धारा 5 दीवानी न्यायालय में सिविल वादों के दायर करने पर लागू नहीं होती है। Is section 5 of Limitation Act not applicable to the filling of civil suits in civil court.

 उच्चतम न्यायालय ने 21 जनवरी 2022 को एक निर्णय दिया है  कि परिसीमा अधिनियम,1963 की धारा 5 दीवानी न्यायालय में सिविल वादों के दायर करने पर लागू नहीं होती है।

भारतीय उच्चतम न्यायालय

उच्चतम न्यायालय ने एनसीडीआरसी द्वारा दिए गए उस निर्णय को रद्द कर दिया जिसमें उसने कहा था कि शिकायतकर्ता सक्षम सिविल न्यायालय में अनुतोष प्राप्त करने के लिए स्वतंत्र है और यदि वह एक सिविल न्यायालय में कार्यवाही करने का विकल्प चुनता है, तो वह परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 5 के तहत एक आवेदन दायर करने के लिए स्वतंत्र है। आयोग ने भारतीय स्टेट बैंक के वकील का यह बयान भी दर्ज किया कि  यदि शिकायतकर्ता द्वारा दीवानी न्यायालय में कार्यवाही की जाती है तो बैंक परिसीमा अधिनियम के मुद्दे पर आपत्ति नहीं करेगा।

न्यायालय ने कहा

 "राष्ट्रीय आयोग द्वारा पारित इस तरह का एक अवलोकन/आदेश परिसीमा अधिनियम के प्रावधानों की पूरी तरह से अनभिज्ञता में है, क्योंकि परिसीमा अधिनियम की धारा 5 सिविल कोर्ट में दीवानी मुकदमे के संस्थित करने पर लागू नहीं होती है।"  


 परिसीमा अधिनियम की धारा 5 में प्रावधान है कि सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश XXI के किसी भी प्रावधान के तहत आवेदन के अलावा कोई अपील या कोई आवेदन निर्धारित अवधि के बाद स्वीकार किया जा सकता है यदि अपीलकर्ता या आवेदक अदालत को संतुष्ट करता है कि उसके पास  ऐसी अवधि के भीतर अपील न करने या आवेदन न करने का पर्याप्त कारण  था।


 अधिनियम की धारा 2(एल) स्पष्ट करती है कि "वाद" में अपील या आवेदन शामिल नहीं है।


 इस मामले में, शिकायतकर्ता ने उपभोक्ता विवाद निवारण फोरम, मेदिनीपुर के समक्ष उपभोक्ता मामला दायर किया था, जिसमें अन्य बातों के साथ-साथ आरोप लगाया गया था कि विरोधी पक्ष अर्थात सुनील कुमार के पास जनवरी 2000 से एक बैंक में सेविंग अकाउंट नंबर था। दिनांक 24.02.2010 को उक्त अकाउंट नंबर बदल दिया गया था। दिनांक १५.०९.2012 को,जब शिकायतकर्ता 500 रुपये की राशि जमा करने गया था तब बैंक के एक कर्मचारी ने उन्हें बताया कि खाता संख्या फिर से बदल दी गई है और उनकी पासबुक पर एक अलग खाता संख्या लिखी है।  उक्त राशि उक्त खाता संख्या में जमा करायी गयी थी।  इसके बाद दिनांक 16.01.2013 को शिकायतकर्ता ने प्रबीर प्रधान द्वारा उसके पक्ष में जारी 3,00,000/ रुपये का चेक जमा किया।जब शिकायतकर्ता दिनांक 11.12.2013 को अपनी पासबुक अपडेट कराने गया, तो उसने देखा कि उसकी पासबुक में रु.  59/- मात्र शेष है जबकि उसने दिनांक 16.01.2013 से 11.12.2013 के बीच कोई लेनदेन नहीं किया था।  पूछताछ करने पर बैंक ने शिकायतकर्ता को सूचित किया कि सुनील मैती नाम का एक और ग्राहक है जिसका खाता नंबर शिकायतकर्ता को गलत तरीके से बता दिया गया था वह खाता उसके नाम था।  उक्त सुनील मैती ने 3,00,000/ रुपये की राशि   1,00,000/- और रु.  2,00,000/- क्रमशः उक्त खाता संख्या से निकाल ली है।  इसलिए शिकायतकर्ता ने बैंक को पत्र लिखा और उसके बाद एसबीआई और उक्त सुनील मैती के खिलाफ उपभोक्ता फोरम में शिकायत दर्ज कराई।  इस शिकायत को उपभोक्ता फोरम ने शिकायतकर्ता के पक्ष में निर्णीत कर दी थी जिसके खिलाफ बैंक ने राज्य आयोग के समक्ष अपील की थी।  एससीडीआरसी ने लगाए गए जुर्माने की सीमा को छोड़कर उपभोक्ता फोरम के आदेश को बरकरार रखा।  इसलिए बैंक ने पुनरीक्षण याचिका दायर कर एनसीडीआरसी का दरवाजा खटखटाया।  याचिका को स्वीकार करते हुए, एनसीडीआरसी ने शिकायतकर्ता को कानून के अनुसार सक्षम दीवानी अदालत में जाने की स्वतंत्रता के साथ शिकायत को खारिज कर दिया।  इस आदेश को चुनौती देते हुए शिकायतकर्ता ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।  शीर्ष अदालत ने अपील की अनुमति दी और एनसीडीआरसी के आदेश को रद्द कर दिया।

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