क्या एस सी/एस टी एक्ट के अंतर्गत अग्रिम जमानत दी जा सकती है।
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दिल्ली उच्च न्यायालय का फैसला: अनुसूचित जाति- अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 3(1)(ब) के अंतर्गत मामला लाने के लिए अपराध पीड़ित की जाति के बारे में किया जाना चाहिए।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया है कि एससी / एसटी अधिनियम की धारा 3 (1) (w) के अंतर्गत किसी व्यक्ति के विरुद्ध मुकदमा चलाने के लिए, अभियोजन पक्ष को यह साबित करना होगा कि अपराध पीड़ित की ‘जाति के संदर्भ में किया गया था। ‘
न्यायमूर्ति चंद्रधारी सिंह ने फैसला दिया कि धारा 3 (1) (w) एक ऐसे व्यक्ति के लिए अपराध गठित करती है जो अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं है, और जानबूझकर किसी महिला को जो अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति की सदस्य है, स्पर्श है और जब स्पर्श यौन प्रकृति का होता है और पीड़ित की सहमति के बिना किया जाता है तो ये अपराध होता है।
यह भी स्पष्ट किया गया है कि एससी/एसटी अधिनियम की धारा 3(1)(आर) और 3(1)(एस) के अंतर्गत दंडनीय अपराध प्रथम दृष्टया आकर्षित नहीं होते हैं क्योंकि ऐसा कोई आरोप नहीं है कि कथित आरोपी द्वारा जातिवादी गाली दी गई थी।
मामला क्या है
जमानत याचिकाकर्ता के विरुद्ध भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 376/506, साथ ही एससी/एसटी अधिनियम की धारा 3(1)(आर) और 3(1)(एस) के अंतर्गत प्राथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की गई थी।
मामला पासी हरिजन अनुसूचित जाति की एक तलाकशुदा महिला द्वारा दायर शिकायत पर आधारित था। शिकायत के अनुसार याचिकाकर्ता ने कथित तौर पर जबरदस्ती शारीरिक संबंध बनाए, आपत्तिजनक तस्वीरें लीं, जबरन वसूली की और शिकायतकर्ता को हत्या की धमकी दी। घटना में जाति-आधारित आरोप लगाए गए जिसमें आवेदक ने उसे “पासी” के रूप में संदर्भित किया था।
न्यायालय ने पाया कि पक्षकारों के बीच पारस्परिक रूप से लाभप्रद संबंध थे। एससी / एसटी अधिनियम की प्रयोज्यता के लिए कोई प्रथम दृष्टया सबूत नहीं था। पृथ्वी राज चौहान बनाम भारत संघ और अन्य के मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के आधार पर कोर्ट ने याचिकाकर्ता अग्रिम जमानत दे दी।
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