जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते

 इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक निर्णय में कहा है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (डी) के अनुसार, जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते, इसके बजाय इसे शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए। न्यायमूर्ति सैयद आफताफ हुसैन रिजवी ने विमल दुबे और एक अन्य द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482  के अंतर्गत दायर याचिका को स्वीकार कर ये निर्णय दिया। आवेदकों के अधिवक्ता ने मुख्य रूप से तर्क दिया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 323 और 504 के अंतर्गत एक एनसीआर पंजीकृत किया गया था और उसके बाद जांच की गई और आवेदकों के विरुद्ध आरोप पत्र प्रस्तुत किया गया।  यह तर्क दिया गया कि मजिस्ट्रेट ने पुलिस रिपोर्ट को देखे बिना और कानून के प्रावधानों के खिलाफ अपराध का संज्ञान लिया, क्योंकि धारा 2 (डी) सीआरपीसी के अनुसार, यदि जांच के बाद पुलिस रिपोर्ट में असंज्ञेय अपराध का खुलासा होता है, तो यह शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए और जांच अधिकारी/पुलिस अधिकारी को शिकायतकर्ता माना जाएगा और शिकायत मामले की प्रक्रिया का पालन किया जाना है। धारा 2(डी) सीआरपीसी के प्रावध

क्या विशेष न्यायालय द्वारा अग्रिम जमानत याचिका निरस्त किए जाने के विरुद्ध एससी-एसटी अधिनियम की धारा 14ए के अंतर्गत अपील संस्थित की जा सकती है।

 इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने शुक्रवार को निर्णय दिया है  कि विशेष न्यायालय द्वारा अग्रिम जमानत याचिका निरस्त किए जाने के विरुद्ध एससी-एसटी अधिनियम की धारा 14ए के अंतर्गत अपील संस्थित की जा सकती है।

न्यायमूर्ति कृष्ण पहल की पीठ अग्रिम जमानत के आवेदनों पर विचार कर रही थी, जहां आवेदकों पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के अंतर्गत दंडनीय अपराध करने का आरोप है।

तीनों अग्रिम जमानत आवेदनों को संबंधित विशेष न्यायाधीश एससी/एसटी एक्ट ने निरस्त कर दिया है।

आवेदक के अधिवक्ता आकाश तोमर ने पृथ्वी राज चौहान बनाम भारत संघ और अन्य के मामले पर भरोसा करते हुए प्रस्तुत किया कि यदि शिकायत अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति अधिनियम, 1989 के प्रावधानों की प्रयोज्यता के लिए प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनता है तो धारा 18 और 18A(i) द्वारा बनाया गया अवरोध लागू नहीं होगा। केवल चेतावनी यह है कि शक्ति का संयम से उपयोग किया जाना है और इसका उपयोग नहीं किया जाना है ताकि अधिकार क्षेत्र को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 के अंतर्गत परिवर्तित किया जा सके।


पीठ के समक्ष विचार का मुद्दा था कि क्या आवेदकों को अग्रिम जमानत दी जा सकती है अथवा नहीं?

पीठ ने कहा कि किसी अपराध में अग्रिम जमानत तभी दी जा सकती है जब एससी/एसटी के अंतर्गत अपराध का आरोप लगाया गया हो लेकिन जब अदालत संतुष्ट हो कि लगाए गए आरोप से प्रथम दृष्टया एससी/एसटी अधिनियम के अंतर्गत मामला नहीं बनते हैं। अधिनियम की धारा 18ए के लागू होने के बाद भी कानून की स्थिति जस की तस बनी हुई है।

उच्च न्यायालय ने कहा कि “एससी / एसटी अधिनियम के विशेष प्रावधानों के अंतर्गत पीड़ित और गवाहों का अधिकार, दण्ड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत प्रदान अधिकार की तुलना में उच्च स्तर पर है। अधिनियम की पूरी योजना से, विशेष न्यायालयों की शक्तियों सहित, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अधिनियम ने सामान्य न्यायालयों की तुलना में विशेष न्यायालयों को प्रधानता और विशिष्टता प्रदान की है।

 अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 14ए में अभिव्यक्ति ‘जमानत’ में अग्रिम जमानत भी शामिल है। अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम के प्रावधानों के अंतर्गत अग्रिम जमानत देने या अस्वीकार करने का आदेश अधिनियम की धारा 14ए के अंतर्गत उच्च न्यायालय के अपीलीय क्षेत्राधिकार के लिए उत्तरदायी होगा, न कि धारा 438 सीआरपीसी के अंतर्गत।

उपरोक्त को देखते हुए पीठ ने अर्जी खारिज कर दी।

केस शीर्षक: कैलाश बनाम यू.पी. राज्य

बेंच: जस्टिस कृष्ण पहलु

मामला संख्या: आपराधिक विविध अग्रिम जमानत आवेदन धारा 438 सीआरपीसी के तहत। संख्या – 2022 का 9396

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