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जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते

 इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक निर्णय में कहा है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (डी) के अनुसार, जहां असंज्ञेय अपराध शामिल हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र का संज्ञान नहीं ले सकते, इसके बजाय इसे शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए। न्यायमूर्ति सैयद आफताफ हुसैन रिजवी ने विमल दुबे और एक अन्य द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482  के अंतर्गत दायर याचिका को स्वीकार कर ये निर्णय दिया। आवेदकों के अधिवक्ता ने मुख्य रूप से तर्क दिया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 323 और 504 के अंतर्गत एक एनसीआर पंजीकृत किया गया था और उसके बाद जांच की गई और आवेदकों के विरुद्ध आरोप पत्र प्रस्तुत किया गया।  यह तर्क दिया गया कि मजिस्ट्रेट ने पुलिस रिपोर्ट को देखे बिना और कानून के प्रावधानों के खिलाफ अपराध का संज्ञान लिया, क्योंकि धारा 2 (डी) सीआरपीसी के अनुसार, यदि जांच के बाद पुलिस रिपोर्ट में असंज्ञेय अपराध का खुलासा होता है, तो यह शिकायत के रूप में माना जाना चाहिए और जांच अधिकारी/पुलिस अधिकारी को शिकायतकर्ता माना जाएगा और शिकायत मामले की प्रक्रिया का पालन किया जाना है। धारा 2(डी) सीआरपीसी के प्रावध

क्या दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 319 के अंतर्गत कार्यवाही करने के लिए प्रथम दृष्टया से अधिक मामला साबित होना चाहिए

 जस्टिस अजय रस्तोगी और जस्टिस अभय एस ओक की पीठ ने कहा, "दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 319को लागू करने के लिए महत्वपूर्ण परीक्षण वह है जो प्रथम दृष्टया मामले से अधिक हो जैसा कि आरोप तय करने के समय प्रयोग किया जाता है, लेकिन इस हद तक संतुष्टि की कमी है कि सबूत, अगर अखंडित रह जाता है, तो दोषसिद्ध हो जाएगी।" धारा 319 दण्ड प्रक्रिया संहिता विचारण न्यायालय  को उस व्यक्ति के विरुद्ध कार्यवाही करने की शक्ति देती है, जिसका नाम आरोप पत्र में नहीं है, अगर विचारण के दौरान उस व्यक्ति की संलिप्तता का सबूत सामने आता है। इस मामले में विचारण न्यायालय ने शिकायतकर्ता द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 319 के तहत अपीलकर्ता को आरोपी के रूप में समन करने और हत्या के एक मामले में विचारण का सामना करने के लिए दायर आवेदन को खारिज कर दिया था। विचारण न्यायालय ने कहा कि न तो शिकायतकर्ता (पीडब्लू 1) और न ही उसके पिता (पीडब्लू 2) प्रत्यक्षदर्शी थे और केवल अपीलकर्ता द्वारा बिजली के तार को हटाने के बारे में कहा गया है और इस तथ्य को जांच अधिकारी ने तब भी देखा जब आरोप पत्र दायर किया गया और जांच अधिकारी ने वर्

क्या दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 202 की उपधारा 1 के उपबंध का पालन करना आवश्यक है

 इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया है कि  यदि कोई आरोपी मजिस्ट्रेट के अधिकार क्षेत्र से बाहर निवास करता है तो दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 204 के अंतर्गत प्रक्रिया जारी करने से पहले ऐसे मजिस्ट्रेट के लिए धारा 202 की उपधारा 1 के अंतर्गत यह अनिवार्य है कि वह या तो स्वयं मामले की जांच करे या जांच करने का निर्देश दे।  न्यायमूर्ति मंजू रानी चौहान की खंडपीठ ने आगे कहा कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 202 के प्रावधान के अनुसार (23.06.2006 से संशोधित के अनुसार), यह आवश्यक है कि उन मामलों में, जहां आरोपी उस क्षेत्र से परे एक स्थान पर निवास कर रहा है जिसमें संबंधित मजिस्ट्रेट अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करता है तो मजिस्ट्रेट की ओर से यह अनिवार्य है कि प्रक्रिया जारी करने से पहले वह स्वयं मामले की जांच करें या जांच करने का निर्देश देन।   मामले का संक्षिप्त विवरण  एक महिला ने अपने ससुराल वालों याचिकाकर्ता के विरुद्ध शिकायत की थी कि वे उसे मानसिक और शारीरिक रूप से परेशान करते थे और विवाह अ के लगभग 7 महीने बाद उसे उसके माता-पिता के घर वापस भेज दिया गया था।  शिकायत में आगे कहा गया कि जब उसे जा

क्या दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के अंतर्गत आवेदन शपथपत्र द्वारा समर्थित होना चाहिए

 उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया है  कि यदि शिकायत के साथ शपथपत्र नहीं है तो मजिस्ट्रेट दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) के अंतर्गत  आवेदन की सुनवाई नहीं कर सकता है। यह अधिकार मजिस्ट्रेट को  दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) में प्रदान किया गया है। जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस कृष्ण मुरारी की पीठ ने कहा कि यदि शपथपत्र झूठा पाया जाता है, तो उस व्यक्ति पर विधि के अनुसार मुकदमा चलाया जाएगा। इस मामले में शिकायतकर्ताओ का आरोप यह है कि आरोपी ने शिकायतकर्ताओं से खाली स्टांप पेपर लेकर उन ब्लैक स्टांप पेपर का दुरुपयोग करके,कूटकरण करके और उन्हें धोखा देकर विक्रय के लिए अनुबंध तैयार कर लिया। इसलिए उन्होंने भारतीय दंड संहिता की धारा 420, 464, 465, 468 और 120बी के दंडनीय अपराधों का अपराध किया  है।।  बैंगलोर के द्वितीय अतिरिक्त मुख्य मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट द्वारा पुलिस को प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने का निर्देश दिया गया।  आरोपी ने उस आदेश के खिलाफ उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर दावा किया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) के अंतर्गत दिये गये मजिस्ट्रेट के आदेश को निरस्त किया जाए क्योंक

क्या बीमा कंपनी बीमित वाहन की चोरी पर प्रतिकर दावा को देरी से सूचना के आधार पर निरस्त कर सकती है।

 उच्चतम न्यायालय द्वारा एक निर्णय दिया गया है जिसमें  माना है कि य‌दि चोरी की घटना होने पर बीमा कंपनी केवल इस आधार पर उपभोक्ता का प्रतिकर दावा अस्वीकार नहीं कर सकती कि कंपनी को घटना की सूचना देरी से दी गई, जबकि प्रथम सूचना रिपोर्ट तुरंत दर्ज कराई गई थी। उक्त मामले में शिकायतकर्ता का बीमित वाहन लूट लिया था। शिकायतकर्ता ने लूट की रिपोर्ट भारतीय दण्ड संहिता की धारा 395 के अंतर्गत अपराध के लिए  पंजीकृत कराई थी। पुलिस ने आरोपियों को गिरफ्तार कर संबंधित न्यायालय में चालान किया। लेकिन लूटे गए वाहन का पता नहीं चल पाया, इसलिए पुलिस ने पता नहीं लगाया जा सका की रिपोर्ट न्यायालय में प्रस्तुत की। इसके बाद, शिकायतकर्ता ने वाहन की चोरी के संबंध में बीमा कंपनी के समक्ष वाहन की बीमा राशि प्राप्त करने हेतु दावा दायर किया। बीमा कंपनी उचित समय में दावे का निस्तारण करने में विफल रही। इसलिए शिकायतकर्ता ने जिला उपभोक्ता विवाद निवारण फोरम, गुड़गांव के समक्ष शिकायत दर्ज की। शिकायत के उपभोक्ता फोरम में लंबित रहने की अवधि दोरान बीमा कंपनी ने इस आधार पर शिकायतकर्ता का दावा अस्वीकार कर दिया कि उसने ने बीमा अनुबंध

क्या सरकारी साक्षियों के साक्ष्य से पहले निजी साक्षियों का साक्ष्य पूरा होना चाहिए।

 न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरेश की पीठ ने एक आपराधिक अपील का निपटारा करते हुए कहा, "हम उम्मीद करेंगे कि विचारण न्यायालय सरकारी साक्षियों की गवाही से पहले निजी साक्षियों की गवाही लेगा।" न्यायालय ने कहा कि मुख्य गवाही के पूरा होने के बाद दिए गए लंबे स्थगन, बीतते समय के साथ कई बार बचाव पक्ष को उन साक्षियों पर प्रभावी होने में सहायता करते हैं। वर्तमान मामले में, एक साक्षी ने अपनी मुख्य परीक्षा के दौरान घटना का जिक्र किया था, लेकिन कुछ दिनों के बाद प्रतिपरीक्षा में उसने न्यायालय के समक्ष की गई अपनी मुख्य परीक्षा के तथ्यों पर विवाद किया । विचारण न्यायालय ने आरोपियों को दोषसिद्ध कर दिया । उच्च न्यायालय ने अपील में उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने उनकी अपील को निरस्त करते हुए कहा कि 'विनोद कुमार बनाम पंजाब सरकार, (2015) 3 एससीसी 220' मामले में यह न्यायालय पहले से ही एक ऐसी स्थिति से निपट चुका है, जहां एक साक्षी अभियोजन पक्ष के साक्ष्य के अनुरूप साक्ष्य देने के बाद पूरी तरह से मुकर गया था और ऐसा लंबे स्थगन के कारण से तिकड़म की

क्या दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 235(2) के उपबंध का पालन न करने पर सजा अवैध हो जाती है।

  क्या दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 235(2) के उपबंध का पालन न करने पर सजा अवैध हो जाती है।  गौहाटी उच्च न्यायालय ने एक अपराधिक अपील में निर्णय दिया कि जब कोई विचारण न्यायालय किसी आरोपी को दोषी ठहराता है, तो उसे सजा पर सुनवाई का अवसर प्रदान करना चाहिए, जैसा कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 235 (2) द्वारा आवश्यक है। प्रावधान में कहा गया है कि यदि आरोपी को दोषी ठहराया जाता है और धारा 360 के अनुसार कार्यवाही नहीं की जाती है तो न्यायाधीश को सजा के बिंदु पर आरोपी की सुनवाई करनी चाहिए और फिर कानून के अनुसार उसे सजा सुनानी चाहिए। उच्च न्यायालय ने अलाउद्दीन मियां और अन्य बनाम बिहार राज्य, (1989) 3 एससीसी 5 का हवाला दिया, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि धारा 235 (2) दण्ड प्रक्रिया संहिता का दोहरा उद्देश्य प्राकृतिक न्याय के नियम का पालन करना है।पहला दोषी व्यक्ति को सुनवाई का अवसर प्रदान करना और दूसरा, दी जाने वाली सजा का निर्धारण करने में अदालतों की सहायता करना। उच्च न्यायालय ने निर्णय में यह भी कहा कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 235 (2)  के अनिवार्य प्रावधानों का पालन करने में विफलता एक प

क्या उच्च न्यायालय द्वारा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 के अंतर्गत अपराधिक कार्यवाही को रद्द किया जा सकता है

 केवल भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 का प्राथमिकी में होना और उसके अंतर्गत आरोप निर्धारित होना, कार्यवाही को रद्द न करने का आधार नहीं है। न्यायमूर्ति सुभाष विद्यार्थी ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की  धारा 482 के अंतर्गत संस्थित एक याचिका में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 147, 148, 149, 323, 504, 506, 427 और 307  के अंतर्गत दर्ज पूरी अपराधी कार्यवाही और तलवी आदेश को रद्द करने का निर्णय समझौता के आधार पर दिया है।  दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अंतर्गत दायर याचिका में उच्च न्यायालय के समक्ष तर्क दिया  गया कि, बड़ों और रिश्तेदारों के हस्तक्षेप के कारण, पक्षकारों में समझौता हो गया है  और अब उनके मध्य कोई विवाद शैष नहीं है, और परिवादी नहीं चाहते कि आवेदकों के विरुद्ध कोई कार्रवाई की जाए।  न्यायालय का विश्लेषण और निर्णय न्यायालय ने नरिंदर सिंह और अन्य बनाम पंजाब राज्य और अन्य (2014) 6 SCC 466 मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय और बाद में एमपी बनाम लक्ष्मी नारायण (2019) 5 SCC 688 में उच्चतम न्यायालय के फैसले का हवाला दिया।  लक्ष्मी नारायण मामले में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि धारा 307 आईपीसी क

पत्नी के माता-पिता वैवाहिक विवाद में मध्यस्थता केंद्र पर केवल पति द्वारा जमा की गई राशि प्राप्त करने आते हैं: इलाहाबाद उच्च न्यायालय

  इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक जमानत याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि पत्नी के माता-पिता वैवाहिक विवादों को निपटाने के लिए केवल पति/आवेदक द्वारा जमा की गई राशि प्राप्त करने के लिए मध्यस्था केंद्र से संपर्क करते हैं और उच्च न्यायालय ने ऐसे माता-पिता की इस आदत पर नाराजगी व्यक्त की है। इस मामले के आरोपी पति फ़राज़ हसन ने दहेज निषेध अधिनियम की धारा 3 और 4 और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498 ए, 308, 323 के अंतर्गत दर्ज मामले में गिरफ्तारी से पहले जमानत की मांग करते हुए उच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी। याचिकाकर्ता के अधिवक्ता ने तर्क दिया कि चूंकि मामला एक वैवाहिक विवाद है, इसलिए इसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मध्यस्थता केंद्र के समक्ष भेजा जाना चाहिए। पीठ ने याची के तर्कों  से सहमति रखते हुए मामले को मध्यस्थता के लिए मध्यस्थता केंद्र भेज दिया। न्यायालय ने आवेदक पति को 50000 रुपये मध्यस्थता केंद्र में जमा करने का निर्देश दिया और कहा कि यह राशि मध्यस्थता प्रक्रिया समाप्त होने के बाद ही पत्नी को दी जाएगी।  उच्च न्यायालय ने देखा कि पक्षकार पूर्व नियोजित योजना के साथ मध्यस्थता के लिए

धारा 138 एनआई एक्ट में कानूनी मांग नोटिस जारी करने की 30 दिन की सीमा कब शुरू होती है।

 धारा 138 एनआई एक्ट में मांग नोटिस जारी करने की 30 दिन की सीमा कब शुरू होती है।  दिल्ली उच्च न्यायालय ने धारा 138 (बी) एन.आई. एक्ट के अंतर्गत निर्धारित 30 दिनों की सीमा अवधि की गणना पर विधिक स्थिति निर्धारित की है। वैध कानूनी नोटिस जारी करने के लिए अधिनियम में  यह निर्धारित किया है कि जिस दिन शिकायतकर्ता को बैंक से यह सूचना प्राप्त होती है कि विचाराधीन चेक बिना भुगतान के वापस कर दिया गया है, उसे नहीं जोड़ा जाना चाहिए। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अंतर्गत संस्थित कई ऐसी याचिकाओं पर विचार करते हुए, जिनमें आपराधिक शिकायतों को रद्द करने की मांग की गई थी, न्यायमूर्ति मनोज कुमार ओहरी की एकल-न्यायाधीश खंडपीठ ने निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए कई कानूनी मिसालों और अधिनियम का सहारा लिया। संक्षेप में मामले के तथ्य  नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट 1881 की धारा 138 और 141/142 के अंतर्गत दायर विभिन्न शिकायतों के विरुद्ध याचिकाएं दायर की गई। याचिकाकर्ताओं के अधिवक्ता ने तर्क दिया है कि याचिकाकर्ताओं की शिकायतें पोषणीय नहीं हैं क्योंकि प्रासंगिक विधिक मांग नोटिस विधिक अवधि के बाद जारी किए गए थे। यह

क्या एस सी/एस टी एक्ट के अंतर्गत अग्रिम जमानत दी जा सकती है।

 दिल्ली उच्च न्यायालय का फैसला: अनुसूचित जाति- अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 3(1)(ब) के अंतर्गत मामला लाने के लिए अपराध पीड़ित की जाति के बारे में किया जाना चाहिए।  दिल्ली उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया है कि एससी / एसटी अधिनियम की धारा 3 (1) (w) के अंतर्गत किसी व्यक्ति के विरुद्ध मुकदमा चलाने के लिए, अभियोजन पक्ष को यह साबित करना होगा कि अपराध पीड़ित की ‘जाति के संदर्भ में किया गया था। ‘ न्यायमूर्ति चंद्रधारी सिंह ने फैसला दिया कि धारा 3 (1) (w) एक ऐसे व्यक्ति के लिए अपराध गठित करती है जो अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं है, और जानबूझकर किसी महिला को जो अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति की सदस्य है, स्पर्श है और जब स्पर्श यौन प्रकृति का होता है और पीड़ित की सहमति के बिना किया जाता है तो ये अपराध होता है।  यह भी स्पष्ट किया गया है कि एससी/एसटी अधिनियम की धारा 3(1)(आर) और 3(1)(एस) के अंतर्गत दंडनीय अपराध प्रथम दृष्टया आकर्षित नहीं होते हैं क्योंकि ऐसा कोई आरोप नहीं है कि कथित आरोपी द्वारा जातिवादी गाली दी गई थी। मामला क्या है जमानत याचिकाकर्ता के विरुद्ध भारतीय दंड संहिता,

क्या तलाक की डिक्री के विरुद्ध लम्बित अपील के दौरान पत्नी दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125केअंतर्गत भरण-पोषण भत्ता की मांग कर सकती हैं।

 इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सैयद आफताब हुसैन रिजवी की पींठ ने पति द्वारा दायर एक ऐसी पुनरीक्षण याचिका को निरस्त कर दिया है, जिसमें दावा किया गया था कि परिवार न्यायालय सीआरपीसी की धारा 125 के तहत पत्नी को भरण पोषण का आदेश नहीं दे सकता था, जब हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 के तहत उसके पक्ष में पहले ही तलाक दे दिया गया था।    फैमिली कोर्ट के फैसले के खिलाफ वर्तमान आपराधिक पुनरीक्षण दायर किया  गया है।  उक्त आक्षेपित आदेश द्वारा विपक्षी संख्या  २ के पक्ष में धारा 125 सीआरपीसी के तहत  25,00000/ रुपये की भरण-पोषण राशि प्रदान की गई।  विपक्षी संख्या 2 ने जबाव प्रस्तुत किया कि उसे मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया गया था और बाद में उसे उसके पिता के साथ उसके मायके में छोड़ दिया गया था।  विपक्षी दल ने उसकी अनदेखी करना शुरू कर दिया और उससे विवाह को बनाए नहीं रखा, वास्तव में उसे छोड़ दिया।  इसके अलावा, उसने कहा कि उसके पास आय का कोई स्रोत नहीं है, जबकि विरोधी पक्ष  वायु सेना में स्क्वाड्रन लीडर है, और उसका वेतन 80,000 रुपये प्रति माह है।  इसलिए, विपक्षी संख्या 2 ने 40,000 रुपये के भ

क्या दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा (156)3 मजिस्ट्रेट को अन्वेषण पर निगरानी करने की शक्ति को भी सम्मिलित करती है। Is Section 156(3) CrPC Includes Power of Magistrate to Monitor Investigation,

 इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक फैसला दिया है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) अन्वेषण की निगरानी की मजिस्ट्रेट की शक्ति को शामिल करने के लिए भी पर्याप्त है। इसलिए उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने के बजाय संबंधित मजिस्ट्रेट के समक्ष एक आवेदन करना चाहिए।  जस्टिस अंजनी कुमार मिश्रा और जस्टिस दीपक वर्मा की बेंच ने सुधीर भास्करराव तांबे बनाम हेमंत यशवंत धागे (२०१६) 6 एस एस सी 277 मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए यह टिप्पणी की। जिसमें यह स्पष्ट रूप से कहा गया था कि एक व्यक्ति जो किसी मामले में अन्वेषण के तरीके से असंतुष्ट है, वह सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत मजिस्ट्रेट के समक्ष आवेदन कर सकता है।  गौरतलब है कि सुधीर भास्करराव तांबे मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने साकिरी वासु बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, (2008) 2 एससीसी 409 के फैसले पर भरोसा किया था, जिसमें कहा गया था कि अगर किसी व्यक्ति को शिकायत है कि उसकी प्राथमिकी दर्ज नहीं की गई है या पुलिस प्राथमिकी पंजीकृत होने पर उचित जांच नहीं हो रही है तो पीड़ित व्यक्ति को भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्याय

क्या बेटियां मृत पिता की स्व-अर्जित और अन्य संपत्तियों को विरासत में पाने की हकदार हैं। Are daughters entitled to herietance in property of fatherl

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भारतीय उच्चतम न्यायालय उच्चतम न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए 21 जनवरी 2022 को कहा कि एक पुरुष हिंदू की बेटियां अपने मृत पिता द्वारा विभाजन में प्राप्त स्व-अर्जित और अन्य संपत्तियों को विरासत में पाने की हकदार होंगी और अन्य संपार्श्विक पर वरीयता प्राप्त करेंगी।  उच्चतम न्यायालय ने यह फैसला  मद्रास उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील पर दिया है जो हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत हिंदू महिलाओं और विधवाओं के संपत्ति अधिकारों से संबंधित है।  "यदि एक मृत  हिंदू पुरुष की  निर्वसीयत  संपत्ति जो एक स्व-अर्जित संपत्ति है या एक सहदायिक या एक पारिवारिक संपत्ति के विभाजन में प्राप्त की जाती है, तो वह उत्तरजीविता द्वारा हस्तांतरित होगी न कि उत्तरजीविता द्वारा, और एक बेटी  पुरुष हिंदू के अन्य संपार्श्विक (जैसे मृतक पिता के भाइयों के पुत्र/पुत्रियों) पर वरीयता प्राप्त करते हुए ऐसी संपत्ति की उत्तराधिकारी होगी।  पीठ किसी अन्य कानूनी उत्तराधिकारी की अनुपस्थिति में बेटी के अपने पिता की स्व-अर्जित संपत्ति को विरासत में लेने के अधिकार से संबंधित कानूनी मुद्दे पर विचार कर रही थी।  न्यायमू

क्या परिसीमा अधिनियम,1963 की धारा 5 दीवानी न्यायालय में सिविल वादों के दायर करने पर लागू नहीं होती है। Is section 5 of Limitation Act not applicable to the filling of civil suits in civil court.

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 उच्चतम न्यायालय ने 21 जनवरी 2022 को एक निर्णय दिया है  कि परिसीमा अधिनियम,1963 की धारा 5 दीवानी न्यायालय में सिविल वादों के दायर करने पर लागू नहीं होती है। भारतीय उच्चतम न्यायालय उच्चतम न्यायालय ने एनसीडीआरसी द्वारा दिए गए उस निर्णय को रद्द कर दिया जिसमें उसने कहा था कि शिकायतकर्ता सक्षम सिविल न्यायालय में अनुतोष प्राप्त करने के लिए स्वतंत्र है और यदि वह एक सिविल न्यायालय में कार्यवाही करने का विकल्प चुनता है, तो वह परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 5 के तहत एक आवेदन दायर करने के लिए स्वतंत्र है। आयोग ने भारतीय स्टेट बैंक के वकील का यह बयान भी दर्ज किया कि  यदि शिकायतकर्ता द्वारा दीवानी न्यायालय में कार्यवाही की जाती है तो बैंक परिसीमा अधिनियम के मुद्दे पर आपत्ति नहीं करेगा। न्यायालय ने कहा  "राष्ट्रीय आयोग द्वारा पारित इस तरह का एक अवलोकन/आदेश परिसीमा अधिनियम के प्रावधानों की पूरी तरह से अनभिज्ञता में है, क्योंकि परिसीमा अधिनियम की धारा 5 सिविल कोर्ट में दीवानी मुकदमे के संस्थित करने पर लागू नहीं होती है।"    परिसीमा अधिनियम की धारा 5 में प्रावधान है कि सिविल प्रक्रिया संहिता क

क्या उत्तर प्रदेश में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 506 के अंतर्गत अपराध संज्ञेय और अजमानतीय ह

 इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने हाल ही में निर्णय दिया है कि उत्तर प्रदेश राज्य में भारतीय दण्ड संहिता की धारा506 के अंतर्गत आपराधिक धमकी के लिए सजा का अपराध एक संज्ञेय अपराध है।  जस्टिस सुभाष विद्यार्थी की बैंच ने इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए उत्तर प्रदेश गजट दिनांक 31 जुलाई 1989 में प्रकाशित एक अधिसूचना को उल्लेखित किया है। इसमें उत्तर प्रदेश के तत्कालीन माननीय राज्यपाल द्वारा अधिसूचना जारी की गई थी कि उत्तर प्रदेश में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 506 के अंतर्गत कोई भी अपराध संज्ञेय और अजमानतीय होगा।  न्यायालय ने यह भी कहा मेटा सेवक उपाध्याय बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, 1995 सीजे इलाहाबाद  के वाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की एक पूर्ण पीठ ने उक्त अधिसूचना को क़ायम रखते हुए निर्णय दिया था और इस निर्णय को एरेस रोड्रिग्स बनाम विश्वजीत पी. राणे (2017) 11 एससीसी 62 में उच्चतम न्यायालय ने भी अनुमोदित किया था। क्या है पूरा मामला   वर्तमान मामले में पीड़ित ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) के अंतर्गत एक आवेदन संस्थित किया जिसमें आरोप लगाया था कि याची राकेश कुमार शुक्ला ने उसकी मृत्यु करने के आश

क्या बेटियों के विवाह पर होने वाले खर्च को देने के लिए पिता उत्तरदायी है

 दिल्ली उच्च न्यायालय ने बेटियो के विवाह पर आने वाले खर्च को लेकर एक बड़ा निर्णय किया है. न्यायालय ने कहा है कि विवाह पर आने वाले सभी खर्च की जिम्मेदारी पिता की होगी.  बेटियों के विवाह  को लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा बडा निर्णय पारित किया गया है। यह निर्णय बेटियो के विवाह पर आने वाले खर्च के संबंध में है। उच्च न्यायालय ने निर्णय में कहा है कि बालिग बेटी के भरण-पोषण और उसके विवाह पर आने वाले खर्च का दायित्व पिता का होगा और वे इस दायित्व से बच नहीं सकते। ‘ कन्या दान’ एक हिंदू पिता का गंभीर और पवित्र दायित्व बेटियों के विवाह के संबंध में न्यायमूर्ति विपिन सांघी और जसमीत सिंह की पीठ ने यह निर्णय दिया है। उच्च न्यायालय ने एक व्यक्ति को उसकी बेटियों के विवाह के खर्च के मामले में सुनवाई के बाद आदेश देते हुए कहा कि ‘कन्या दान’ एक हिंदू पिता का गंभीर और पवित्र दायित्व है। न्यायालय ने व्यक्ति को उसकी बड़ी बेटी के विवाह के लिए 35 लाख और छोटी बेटी के विवाह के लिए 50 लाख रुपये देने का आदेश दिया है। पिता की तर्कों को न्यायालय ने खारिज किया इस मामले में पिता द्वारा दलीलें दी गयी थीं कि उनकी बेटी

क्या पारिवारिक विवाद में समझौता होने पर अपराधिक मामले को निरस्त किया जा सकता है

 जस्टिस राजीव सिंह ने  दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अंतर्गत संस्थित अर्जी को स्वीकार कर लिया और पति के खिलाफ दर्ज आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया। विवाद की पृष्ठभूमि  पत्नी ने पति के रिश्तेदारों के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498ए के अंतर्गत प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करवायी थी।  जांघ के दौरान दोनों पक्षों के बीच निम्न न्यायालय के समक्ष मध्यस्थता हुईं, लेकिन  पति निम्न न्यायालय के समक्ष आरंभ मध्यस्थता कार्यवाही से संतुष्ट नहीं हुआ, इसलिए पति ने  दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482केअंतर्गत एक याचिका उच्च न्यायालय में संस्थित की और पति के अधिवक्ता के साथ-साथ  पत्नी के अधिवक्ता की सहमति से मामला उच्च न्यायालय के मध्यस्थता और सुलह केंद्र को प्रेषित गया। पति-पत्नी के अधिवक्ताओं ने मामला मध्यस्थता में  प्रस्तुत किया और मध्यस्थता सफल रही और पत्नी अपने पति और बच्चों के साथ उसके वैवाहिक घर में रहने के लिए तैयार हो गई है और पत्नी आपराधिक मामले में लंबित कार्यवाही को वापस लेने पर सहमत हो गई है। पति-पत्नी के अधिवक्ताओं ने उच्चतम न्यायालय के निम्न निर्णयों का हवाला दिया जिनके आधार पर

क्या भारतीय दण्ड संहिता की धारा 324 जमानतीय और शमनीय है

 भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 324 के अंतर्गत दंडनीय अपराध की प्रकृति के संबंध में आज भी यह भ्रम है कि क्या  धारा 324 के अंतर्गत दण्डनीय अपराध जमानतीय है या गैर-जमानतीय। शमनीय है या अशमनीय। इस लेख में प्रासंगिक वैधानिक उपबन्धो, विधिक संशोधनों, राजपत्र अधिसूचनाओं और न्यायशास्त्रीय विकास का विश्लेषण करते हुए उक्त भ्रम को दूर करने का प्रयास किया है। भारतीय दंड संहिता,1860 की धारा ३२४ मूल रूप से आईपीसी की धारा ३२४ के प्रावधान निम्न है: "आईपीसी की धारा 324: खतरनाक हथियारों से स्वेच्छा से चोट पहुंचाना। धारा 334 द्वारा प्रदान किए गए मामले को छोड़कर स्वेच्छा से गोली मारने, छुरा घोंपने, काटने से चोट का कारण बनता है, जो अपराध के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इससे मृत्यु होने की संभावना है। इसमें किसी भी गर्म पदार्थ, जहर, संक्षारक पदार्थ, किसी विस्फोटक पदार्थ या किसी भी ऐसे पदार्थ से जो मानव शरीर को श्वास लेने, निगलने या रक्त प्रवाह में हानिकारक है, ऐसे अपराधी को तीन वर्ष अवधि के कारावास से दंडित किया जा सकता है। इसके साथ ही जुर्माना भी लगाया जा सकता है। अपराध की प्रकृति को देखत

क्या अपीलीय न्यायालय अपील को अधिवक्ता के उपस्थित रहते हुए बहस करने से इन्कार करने पर गुण दोष के आधार पर निरस्त कर सकता है

 इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में एक निर्णय में कहा है कि जब एक अपील को अपीलीय न्यायालय द्वारा इस तथ्य के आधार पर खारिज कर दिया जाता है कि अपीलकर्ता के वकील  अदालत में  उपस्थित हैं, लेकिन किसी भी कारण से उस पर बहस करने से इनकार करते हैं, तो अपील  आदेश 41 नियम १७(१) सिविल प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत  गुण दोष के आधार पर निरस्त नहीं की जा सकती हैं ।  यह ध्यान रखना चाहिए है कि आदेश 41 नियम 17 सीपीसी के स्पष्टीकरण में कहा गया है कि अपीलीय न्यायालय उन मामलों में गुण-दोष के आधार पर अपील को खारिज नहीं कर सकता है, जहां निर्धारित दिन पर, या किसी अन्य दिन जिस पर सुनवाई स्थगित की गई है है, अपीलकर्ता के अधिवक्ता न्यायालय में उपस्थित  है लेकिन बहस न करें।  इस मामले में, न्यायमूर्ति सलिल कुमार राय की खंडपीठ ने एक जानकी प्रसाद की दूसरी अपील पर विचार करते हुए निम्नलिखित कथन किया:  "... आदेश 41 नियम 17सीपीसी का स्पष्टीकरण उन मामलों में भी लागू होता है जहां अपीलकर्ता के वकील, हालांकि अदालत में व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होते हैं, जब अपील को सुनवाई के लिए बुलाया जाता है, लेकिन अपील पर बहस करने से इनकार

मोटर वाहन दुर्घटना में मरने वाले गैर कमाई वाले व्यक्ति की वार्षिक आय कितनी माननी चाहिए

 इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में दिए गए एक निर्णय में कहा है कि मोटर वाहन दुर्घटना में हुई मृत व्यक्ति की वार्षिक सम्भावित आय २५००० रुपए से कम नहीं मानी जा सकती। न्यायमूर्ति के जे ठक्कर और न्यायमूर्ति अजय त्यागी की पीठ ने अपने निर्णय में कहा कि उच्चतम न्यायालय  सरकार को पहले ही आदेश दे चुकी है कि सरकार इस संबंध में वाहन दुर्घटना अधिनियम की अनुसूची II में आवश्यक संशोधन करे, लेकिन अभी तक कोई संशोधन नहीं किया गया है। जे वर्तमान समय में मुद्रास्फीति की दर,  रुपये की गिरती हुई कीमत और खर्च को देखते हुए किसी की मानक आय 25,000 रुपये से कम होने का अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। उच्च न्यायालय ने रुप चन्द्र के निवासी कानपुर देहात के अपील को स्वीकार करते हुए मोटर वाहन दुर्घटना अधिकरण द्वारा निर्धारित 1,80,000 रुपये के प्रतिकर में संशोधन करते हुए पीड़ित परिवार को 4,70,000 रुपये देने का निर्देश दिया। 18 मार्च 2018 को अपीलकर्ता रूप चंद्रा के सात वर्षीय पुत्र को ट्रक ने टक्कर मार दी थी जिससे उसकी मौके पर ही मृत्यु हो गयी थी। वादी ने मोटर वाहन दुर्घटना अधिनियम के अंतर्गत मोटर वाहन दुर्घटना अधिकरण में द

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